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वरुआसागरसे प्रस्थान
२६७ लगा कि यदि कल्याणकी अभिलाषा है तो इन संसर्गोको त्यागो। जितना संसर्ग बाह्यमें अधिक होगा उतना ही कल्याण मार्गका विरोध होगा। कल्याण केवल आत्मपर्यायमें है जो परके निमित्तसे भाव होते हैं वे सब स्वतत्व परिणतिकी निर्मलतामें वाधक हैं। निर्मलता वह वस्तु है जहाँ परकी अपेक्षा नहीं रहती। यद्यपि जायक सामान्यकी अपेक्षा सर्वदा आत्माकी स्वभावसे अवस्थिति है परन्तु अनादिकालसे आत्मा और मिथ्यात्वका संसर्ग चला आ रहा है इससे कर्मजन्य जो मिथ्यात्वादि भाव हैं उनको निज मानता है, उन्हींका अनुभव करता है अर्थात् उन्हीं भावोंका कर्ता बनता है। ज्ञानमे जो ज्ञेय आते हैं उन रूप परिणति कर उनका कर्ता बनता है। जिस कालमें मिथ्यात्व प्रकृतिका अभाव हो जाता हे उस कालमे आपको आप मानता है उस कालमें ज्ञानपे जो ज्ञेय आते हैं उन्हे जानता है परन्तु ज्ञेयके निमित्तसे ज्ञानमें जो ज्ञेयाकार परिणमन होता है उसे ज्ञेयका न मान ज्ञानका ही परिणमन मानता है, यही विशेषता अज्ञानीकी अपेक्षा ज्ञानीके हो जाती है ।
ज्येष्ठ शुक्ला १२ सं० २००८ के शास्त्र प्रवचनके समय चित्तमे कुछ क्षोभ हो गया । क्षोभका कारण यही था कि आजकल मनुष्य जैनधर्मकी प्रक्रियाको जाननेका प्रयास नहीं करते । जैनधर्मकी प्रक्रिया इतनी स्वाभाविक है कि इसका अनुसरणकर जीव ऐहिक और पारलौकिक दोनों प्रकारके सुखोंसे वञ्चित न हों। देखिये-जैनधर्ममे यह कहा है कि संसारमे जितने पदार्थ हैं वे सव भिन्न-भिन्न सत्ताको लिये हए हैं अत. जब दूसरा पदार्थ हमारा है नहीं तब उसमे हमारा ममत्व परिणाम न होगा। ममता परिणाम ही वन्धका जनक है, यदि पर पदार्थमे निजत्व कल्पना न हो तो हिंसा असत्य चोरी व्यभिचार परिग्रह आदि भाव स्वयमेव विलय जावें। हम दूसरे पदार्थको तुच्छ देखते हैं, उससे घृणा करते हैं। इसका मूल कारण यही है