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मेरी जीवन था
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कि हमने अपने स्त्ररूपको नहीं जाना । परमार्थसे कोई पदार्थ न तो बुरा है और न अच्छा है हम अपनी रुचिके अनुसार ही उनके विभाग करते हैं । जैसे देखो जिस मलको धोकर हम मृत्तिकासे हस्त प्रक्षालन करते हैं । शूकर उसी मलको बड़े प्रेमसे खा जाता हैं । क्या वह जीव नहीं है ? है, परन्तु उस पर्याय में इतना विवेक नहीं कि वह उसे त्यागे । वही जीव यदि चाहे तो उत्तम गतिका भी पात्र हो सकता है। ऐसी कथा आई हैं कि एक सिंह मुनिको मारने के अर्थ चला और शूकरने मुनि रक्षाके लिये सिंहका सामना किया, दोनो मर गये, शूकर स्वर्ग और सिंह नरक गया । यथार्थमें शान्तिका मार्ग कहीं नहीं आपमें ही है । आपसे तात्पर्य आत्मासे है । जो हम परसे शान्ति चाहते हैं यही महती अज्ञानता है क्योंकि यह सिद्धान्त है कि कोई द्रव्य किस द्रव्यमें नवीन गुण उत्पन्न नहीं कर सकता । पदार्थों की उत्पत्ति उपादन कारण और सहकारी कारणों से होती है उपादान एक और सहकारी अनेक होते हैं। जैसे घटकी उत्पत्ति में उपादान कारण मृत्तिका और सहकारी कारण दण्ड चक्र चीवर कुलालादि हैं। यद्यपि घट की उत्पत्ति मृत्तिकामें ही होती है अतः मृत्तिका ही उसका उपादान कारण है फिर भी कुलालादि कारण कूटके अभाव में घट रूप पर्याय मृत्तिकामें नहीं देखी जाती अतः ये कुलालादि घटोत्पत्ति में सहकारी कारण मान जाते हैं इसीलिये प्राचीन आचार्योंने जहाँ कारणके स्वरूपका निर्वचन किया है वहाँ 'सामग्री निका कार्यस्य नैकं कारणं' अर्थात् सामग्री ही कार्यकी जनक है एक कारण नहीं यही तो लिखा है । अतः इस विषय में कुतर्क करना विद्वानों को उचित नहीं । यहाँ पर मुख्य- गौणन्यायकी आवश्य कता नहीं । वस्तु स्वरूप जानने की आवश्यकता है 'अन्वय व्यतिरेकगम्यो हि कार्यकारणभावः' अर्थात् कार्यकारणभाव