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इटावासे प्रस्थान अन्तरसे परिश्रम किया जावे तो अनायास भेद-ज्ञानका लाभ हो सक्ता है । भेदज्ञान वह वस्तु है जिसके होते ही यह आत्मा अनन्त संसारके बन्धको छेद सकता है । भेदज्ञानके अभावमे जो हमारी दशा हो रही है वह हमको विदित है। उसके बिना ही हम परको अपना मानते हैं और निरन्तर यही प्रयास करते हैं कि वह पदार्थ हमारे अनुकूल रहे । पदार्थ २ तरहके हैं एक चेतन और दूसरे अचेतन । अचेतन पदार्थ तो जड़ हैं उनमे न तो राग है और न द्वेष है । वह न किसीका भला करते हैं और न किसीका बुरा करते हैं। हम स्वयं अपनी रुचिके अनुकूल उन्हें काल्पनिक बुरा भला मान लेते हैं। इसमें कारण हमारी रुचि भिन्नता है । यद्यपि यह निर्विवाद है कि सर्व पदार्थ अपने अपने परिणमनसे परिणत होते रहते हैं। कोई कर्ता परिणमन करानेवाला नहीं परन्तु तो भी हमारी ऐसी धारणा बन गई है कि अमुक निमित्त न होता तो यह न होता, क्योंकि लोकमे जो कार्य देखे जाते है वे सवें ही उपादान और निमित्तसे ही आत्म-लाम करते हैं। आप लोगोंका हित आपकी श्रात्मा पर निर्भर है परन्तु आप लोगोंने मुझे उसका निमित्त मान रक्खा है इसलिए मेरे वियोगमे आपको दुःखका अनुभव हो रहा है।
जो संसार समुद्रसे है तरनेकी चाह । मेदशान नौका चढो परकी छोड़ो हाह ।।
इटावासे १३ मील चल कर नलियाजी मिली। वहाँ तक बहुत लोगोंका समुदाय रहा । नलियाजीमें दो छोटे छोटे मन्दिर हैं. दर्शन किये । एक मन्दिरमें प्राचीन प्रतिविम्ब है, बहुत मनोज्ञ है किन्तु हाथ खण्डित है। एक समय ऐसा था जब यवनोंके द्वारा अनेक मन्दिर ध्वस्त किये गये । यवन धर्मानुयायी मूर्तितत्त्वको नहीं