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________________ २१० मेरी जीवन गाथा अच्छा है। उस देशमें जानेसे दान अच्छा होगा तथा संस्थाएँ स्थिर हो जावेंगी। प्रतिदिन प्रातःकाल मन्दिरमे शास्त्रप्रवचन, मध्यान्हमें स्वकीय स्थान पर स्वाध्याय और रात्रिको मन्दिरमे प्रवचन यही क्रम यहाँ पर जब तक रहा चलता रहा। चतुर्मासकी समाप्तिके बाद मार्गशीर्ष कृष्ण पञ्चमीको इटवासे भिण्डके लिये प्रस्थान कर दिया। जाते समय अनेक स्त्री-पुरुष आये । १०-११ माह यहाँ रहनसे लोगोंके हृदयमे मेरे प्रति आत्मीय भाव उत्पन्न होगया था इसलिए जाते समय लोगोंको बहुत दुःख हुआ। मैंने कहा कि यह स्नेह ही संसार वन्धनका कारण है। यदि आप लोगोंने इतने समय तक 'जैनधर्मका कुछ सार ग्रहण किया है तो उसके अनुसार प्रथम तो किसी पर पदार्थमें इष्ट अनिष्टकी भावना ही नहीं होना चाहिये और यदि कारण वश किसीमें इष्ट अनिष्ट भावना हो भी गई है तो उसके वियोग तथा संयोगमें हर्ष विषादका अनुभव नहीं करना चाहिए। इस विषम संसारमें अनादिसे यह जीव पर पदार्थमें निजत्वकी कल्पना करता है। जिसमें निजत्व मानता है उसे अपनानेकी चेष्टा करता है, उसको किसी प्रकार वाधा न पहुंचे ऐसा प्रयत्न संतत करता है। यदि कोई उसके प्रतिकूल हुआ तो उससे पृथक् होनेकी चेष्टा करता है। वन्धन ही दुःखका मूल है, बन्धन स्नेह-मोहमूलक । है और मोहपर पदार्थोंको अपना मानना एतन्मूलक है। इस संसार अटवीमें अनन्त काल भ्रमण करते करते आज यह अलब्ध मनुष्य पर्यायका लाभ हुआ है। अथवा यह कथनमात्र है. क्योंकि अनन्त वार मनुष्य पर्याय पाया है। पर्याय ही नहीं पाया अनन्तवार द्रव्यमुनि होकर अनन्तवार वेयक तक गया जहाँ ३१ सागरकी आयु पाई, तत्त्व विचारमें समय गया किन्तु स्वात्मज्ञानसे वञ्चित रहा। अव अवसर अच्छा है यदि
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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