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________________ १२६ मेरी जीवन गाथा है । जहाँ रक्षाका भाव उत्पन्न हुआ वहाँ उसके साधक-बाधक कारणोंमें राग द्वेष-इष्ट अनिष्टकी कल्पना अनायास हो जाती है। अष्टम दिन त्याग धर्मका मार्मिक विवेचन था। अनादिसे यह आत्मा पर वस्तुको अपना मान रहा है। यद्यपि पर अपना होता नहीं और न एक अंश उसका हममे आता है। वस्तु जिस मर्यादामें है उसीमें रहेगी, परन्तु हम मोहके वशीभूत हो वस्तु स्वरूपको अन्यथा मान रहे हैं। जिस तरह कामला रोगवाला श्वेत सङ्घको पीत मानता है उसी तरह मैं अनात्मपदार्थकोस्वात्मा मान रहा हूं। जब तक किसी पदार्थसे अपनत्व बुद्धि नही हटती तब तक उसका त्याग होना संभव नहीं। नवम दिन आकिञ्चन्य धर्मका अवसर था । अात्मासे मूर्छा भाव निकल जाने पर आकिञ्चन्य धर्म प्रकट होता है । मू का अर्थ परमें ममताभाव है। यद्यपि संसारका कोई पदार्थ किसीका नहीं। सब अपने अस्तित्व गुणसे परिपूर्ण हैं तो भी यह मोही प्राणी उन्हे अपने अस्तित्वमें मिलाना चाहता है और जब वे इसके अस्तित्वमे नहीं मिलते तब दुःखी होता है । व्यर्थ ही पर पदार्थोंका भार अपने ऊपर ले संक्लेशका अनुभव करता है। 'काजी दुर्बल क्यों ? नगरकी चिन्तासे' यह कहावत हमारी प्रवृत्तिमे आ रही है । दशम दिन ब्रह्मचर्यका प्रकरण था। परमार्थसे ब्रह्मवर्यका अर्थ ब्रह्म अर्थात् आत्मस्वरूपमे लीन होना है। योग और कपाय ये दोनों ही आत्माको आत्मलीनतासे विमुख कर रहे हैं, अतः उनका श्रभाव करनेसे ही ब्रह्मचर्यमें पूर्णता आती है। बाह्यमे स्त्रीत्यागको ब्रह्मचर्य कहते हैं। प्रारम्भमें स्त्रदार संतोप ब्रह्मचर्य कहलाता है, परन्तु सप्तम प्रतिमासे स्वदारका भी त्याग हो जाता है।
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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