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मेरी जीवन गाथा
चाहता है | तेरी अवस्था वृद्ध है अतः अब एक स्थान पर रहकर “धर्म साधन कर इसीमें तेरा कल्याण है, धर्म निःस्पृहता है ।
श्री पं० राजेन्द्रकुमारजी वा श्री छदामीलालजी आदि अनेक सज्जन पहुॅचानेके लिये आये । अनेक प्रकारका संलाप हुआ । सबके मुखसे श्री छदामीलालकी प्रशंसाके पोषक वाक्य निकले । मेलामें जबलपुर से अनेक सज्जन तथा सागरसे सेठ भगवानदासजी आदि अनेक महानुभाव पधारे थे और सबने सागर चलनेकी प्रेरणा की थी इसलिये मनमे एकवार सागर पहुॅचनेका निश्चय -कर लिया ।
स्वर्णगिरिकी ओर
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फिरोजाबाद से ६ मील चलकर शिकोहाबादमे ठहर गये । अध्यापिका के यहाँ भोजन किया । यहाँ पर मन्दिर बहुत सुन्दर और स्वच्छ है । ५० घर पद्मावतीपुरवालोंके हैं । परस्परमें मैत्रीभाव है । रात्रिको शास्त्रसभा होती है । हम जहाँ पर ठहरे थे वह जैनपुस्तकालयका स्थान था परन्तु विशेष व्यवस्था नहीं । ज्ञानका आदर नहीं, जो कुछ द्रव्य लोग व्यय करते हैं वह मन्दिरकी शोभा लगाते हैं | ज्ञानगुण आत्माका है । उसके विकाशमें न द्रव्य लगाते हैं और न समयका सदुपयोग करते हैं। केवल बाह्यमें संगमर्मर आदिका फर्स लगाकर तथा वेदीमे सुवर्णका चित्राम आदि बनवा नेत्रोंके विपयको पुष्ट करते हैं। आत्माका स्वभाव ज्ञाता दृष्टा है उसको दूषित कर राग और द्वेपके द्वारा किमीको