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________________ स्वर्णगिरिकी र २३६ ष्ट और अनिष्ट मानकर निरन्तर परको अपनाने और न अपनानेमे ही दुःख के पात्र बनते हैं 1 फाल्गुन कृष्णा ५ सं० २००७ को बटेश्वर आ गये । यहाँ पर भट्टारकजी के मन्दिर में ठहर गये । मन्दिर बहुत रम्य और विशाल है । नीचेके भागमे ठहरे । स्नान कर ऊपर श्राये तथा मूर्ति के दर्शन कर गद्गद् हो गये । काले पाषाणकी ४ फुट ऊँची श्री अजितनाथ भगवान्‌ की मूर्ति अत्यन्त मनोज्ञ है । वीतराग भावका उदय जिसके दर्शनसे होता है वह प्रतिमा मोक्षमार्ग में सहायक है । आचार्योंने इसे सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिका बाह्य कारण बताया है । यद्यपि वीतरागता वीतरागका धर्म है और वीतराग आत्मा मोहके भाव होता है । किन्तु जिस आत्मामें वीतरागताका उदय होता है, उसकी मुद्रा भी बाह्यमें शान्तरूप हो जाती हैशरीरके अवयव स्वभावसे ही सौम्य हो जाते हैं । यह असम्भव बात नहीं, जिस समय आत्मा क्रोध करता है उस समय इसके नेत्र रक्त और मुख भयंकर आकृतिको धारण कर लेता हैं, शरीरमे कम्प होने लगता है, दूसरा मनुष्य देख कर भयवान् हो जाता है । इसी तरह जब इस प्रारणीके शृङ्गार रसका उदय आता है तब उसके शरीरका अवलोकन कर रागी जीवोंको रागका उदय हो जाता है । जैसे कालीकी मूर्ति से भय और हिंसक्ता झलकती है। तथा वेश्या अवलोकनसे रागादि भावोंकी उत्त्पत्ति होती है वैसे ही वीतराग दर्शनसे जीवोंके वीतराग भावोंका उदय होता है । वीतरागता कुछ बाह्यसे नहीं आती । जहाँ राग परिणतिका अभाव होता है वहीं वीतरागताका उदय हो जाता है । बटेश्वर से ५ मील चल कर वाह आगये तथा मन्दिरकी धर्मशालामे ठहर गये । थकानके कारण ज्वर हो गया । अव शारीरिक शक्ति दुर्बल हो गई, केवल कषायसे भ्रमण करते हैं । १ वार भोजन
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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