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रेशन्दी गिरिमँ पञ्च कल्याणक
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सम्मेलन होनेसे मेला मे अनेक व्रती पधारे थे अतः उन्होंने तथा अन्य अनेक लोगोंने व्रत ग्रहण किये। हमन कहा कि यह संसार हैं और हमारे ही प्रयत्नका फल है । इसका अन्त करनेमे हम ही कारण हैं । इसका बनानेवाला यदि कोई है तो अन्त करनेवाला भी वही होगा । हम उभयथा निर्दोष हैं ऐसा मानना न्यायसंगत नहीं । हम निर्दोष भी हो सकते हैं और सदोप भी । अतः तत्त्वज्ञ वनो और आजतक जो परमे संसार तथा मोक्षके माननेका अज्ञान है उसे त्यागो | यथार्थ पथपर आओ । ससारमे वही महापुरुष वन्दनीय होते हैं जिन्होंने ऐहिक और पारलौकिक कार्योंसे तटस्थ होकर आत्मकल्याणके अर्थ स्वकीय परिणतिको निर्मल बना दिया है । विषयका मार्ग ऊपरसे मनोरम दिखता है पर उसका अन्तस्तल बहुत ही कण्टकापूर्ण है। इससे जो वच निकले उनका बेड़ा पार हो गया । यदि विपय सुखमे आनन्द होता तो भगवान् आदि जिनेन्द्र ही उसे क्यों त्यागते ? जबतक चारित्रमोहका उदय था तबतक वे भी अन्य संसारी प्राणियों के समान विपयके गर्तमे पड़े रहे। तीर्थंकर प्रवर्तक पुरुप कहलाते हैं । इन्हे तीर्थकी प्रवृत्ति करना होती है । फिर यदि यही संसार के अन्य प्राणियोंके समान विषयमे निमग्न रहे तो तीर्थकी क्या प्रवृत्ति करेंगे ? यह विचार कर सौधर्मेन्द्र इनके वैराग्यके निमित्त जिसकी आयु अत्यल्प रह गई थी ऐसी नीलाञ्जनाको नृत्य करनेके लिये खड़ा कर देता है । थोड़ी देर में उसकी आयु समाप्त हो जाती है जिससे उसका शरीर विद्युत् के समान विलीन हो गया । रसमें भंग न हो इस भावना से इन्द्रने मटसे दूसरी देवी उसीके समान रूपवाली खड़ी कर दी परन्तु भगवान् उसके अन्तरको समझ गये । इस घटनासे भगवानके ज्ञानमें आ गया कि संसार क्षणभंगुर है । हमने अपनी आयुके ८३ लाख पूर्वं व्यर्थ ही खो दिये । कहाँ तो हम पूर्व भवमें यह चिन्तवन करते थे
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