SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 346
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रेशन्दी गिरिमँ पञ्च कल्याणक ३२१ सम्मेलन होनेसे मेला मे अनेक व्रती पधारे थे अतः उन्होंने तथा अन्य अनेक लोगोंने व्रत ग्रहण किये। हमन कहा कि यह संसार हैं और हमारे ही प्रयत्नका फल है । इसका अन्त करनेमे हम ही कारण हैं । इसका बनानेवाला यदि कोई है तो अन्त करनेवाला भी वही होगा । हम उभयथा निर्दोष हैं ऐसा मानना न्यायसंगत नहीं । हम निर्दोष भी हो सकते हैं और सदोप भी । अतः तत्त्वज्ञ वनो और आजतक जो परमे संसार तथा मोक्षके माननेका अज्ञान है उसे त्यागो | यथार्थ पथपर आओ । ससारमे वही महापुरुष वन्दनीय होते हैं जिन्होंने ऐहिक और पारलौकिक कार्योंसे तटस्थ होकर आत्मकल्याणके अर्थ स्वकीय परिणतिको निर्मल बना दिया है । विषयका मार्ग ऊपरसे मनोरम दिखता है पर उसका अन्तस्तल बहुत ही कण्टकापूर्ण है। इससे जो वच निकले उनका बेड़ा पार हो गया । यदि विपय सुखमे आनन्द होता तो भगवान् आदि जिनेन्द्र ही उसे क्यों त्यागते ? जबतक चारित्रमोहका उदय था तबतक वे भी अन्य संसारी प्राणियों के समान विपयके गर्तमे पड़े रहे। तीर्थंकर प्रवर्तक पुरुप कहलाते हैं । इन्हे तीर्थकी प्रवृत्ति करना होती है । फिर यदि यही संसार के अन्य प्राणियोंके समान विषयमे निमग्न रहे तो तीर्थकी क्या प्रवृत्ति करेंगे ? यह विचार कर सौधर्मेन्द्र इनके वैराग्यके निमित्त जिसकी आयु अत्यल्प रह गई थी ऐसी नीलाञ्जनाको नृत्य करनेके लिये खड़ा कर देता है । थोड़ी देर में उसकी आयु समाप्त हो जाती है जिससे उसका शरीर विद्युत् के समान विलीन हो गया । रसमें भंग न हो इस भावना से इन्द्रने मटसे दूसरी देवी उसीके समान रूपवाली खड़ी कर दी परन्तु भगवान् उसके अन्तरको समझ गये । इस घटनासे भगवानके ज्ञानमें आ गया कि संसार क्षणभंगुर है । हमने अपनी आयुके ८३ लाख पूर्वं व्यर्थ ही खो दिये । कहाँ तो हम पूर्व भवमें यह चिन्तवन करते थे २१
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy