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आचार्य नमिसागरजी महाराजका समाधिमरण
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हे भगवन् ! हे जगत्के वन्धु । आपके चरणोंकी शरण पाकर मेरे दुःखोंका क्षय हो इस प्रकार कोई भक्त भगवान् से प्रार्थना करता है । भगवान् की ओरसे उत्तर मिलता है कि दुःखो का क्षय तबतक नहीं हो सकता जबतक कि कर्मों का क्षय न हो जाय । यह सुन भक्त, भगवान् से कहता है कि भगवन् । कर्मों का भी क्षय हो । भगवान् की ओरसे पुनः उत्तर मिलता है कि कर्मोंका क्षय तबतक नहीं हो सकता जबतक कि समाधिमरण न हो । कायरों की तरह रोते चीखते हुए जो मरण करते हैं वे कर्मोंका क्षय कदापि नहीं कर सकते । यह सुन भक्त भगवान्से पुनः प्रार्थना करता है कि भगवन् । समाधिमरणकी भी मुझे प्राप्ति हो । भगवान् की ओरसे पुनः आवाज आती है कि बोधि - रत्नत्रयकी प्राप्तिके बिना समाधिमरणका होना दुर्लभ है। तब फिर भक्त प्रार्थना करता है कि महाराज । बोधिका लाभ भी मुझे हो । कहनेका तात्पर्य यह है कि जबतक यह जीव सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र प्राप्त नहीं कर लेता तबतक इसके दुःखोंका क्षय नहीं हो सकता । जिस प्रकार हिमके कुण्ड में अवगाहन करनेसे तत्काल शीतलताका अनुभव होने लगता है । उसी प्रकार सम्यग्दर्शनादिके होनेपर तत्काल सुखका अनुभव होने लगता है । अन्यकी बात जाने दो, नारकी जीव भी सम्यग्दर्शन के होनेपर तत्काल सुखका अनुभव करने लगता है । विपरीताभिनिवेश दूर होना ही सम्यग्दर्शन है । जहाँ विपरीतभाव गया वहाँ सुखकी बात क्या पूछना ?
मैंने श्राद्धाञ्जलि भाषणमे लोगोंसे यही कहा कि महाराज तो आत्मकल्याण कर स्वर्गमे कल्पवासी देव होगये । अब उनके प्रति शोक करनेसे क्या लाभ है ? शोक तो वहाँ होना चाहिये जहाँ अपना स्नेहभाजन व्यक्ति दुखको प्राप्त हो । अव तो हम सबका पुरुषार्थ इस प्रकारका होना चाहिये कि जिससे