________________
२७६
मेरी जीवन गाथा भी अपनी जातिके अदना आदमीके साथ भोजनादि करनेमें संकोच नहीं करता । यदि किसीके पास १ रोटी हो और १० मुसलमान आ जावें तो यह एक एक टुकड़ा खाकर संतोप कर लेंगे। नमाजके समय कहीं भी हों वहींपर नमाज पढ़ लेंगे, परस्परमे मैत्री भावना रक्खेंगे, एक दूसरेको अपनाना जानते हैं इत्यादि। परन्तु हमारे देशके लोग किसीसे गुण ग्रहण न कर अधिकांश उसके दोप ही ग्रहण करते हैं।
बागसे चल कर ववीना ग्राममे आ गये। यहाँ पर २५ घर जैनियोंके हैं। ५ स्थानो पर दर्शन हैं। दूसरे दिन ३ बजे जब यहाँसे चलने लगे तव ५० मनुष्य और ५० महिलाएँ आ गई। कुछ उपदेश हुआ। पाठशालाके लिये ४०) मासिकका चन्दा हो गया। यहाँ १ मनुष्यको पञ्चायतने १२ माससे जाति च्युत कर दिया था। उसने जो अपराध किया था उसकी क्षमा माँगी। लोगोंने ज्ञमा दी । यदि इतनी नम्रता पहले ही व्यवहारमें लाता तो इतना परेशान क्यों होता परन्तु कपायका वेग भी कुछ चीज है। ववीनासे ४ मील चलकर घिसोली आये, यहाँपर सड़कके किनारे एक जैन मन्दिर है । उसीकी दहलानमे ठहर गये । मन्दिरमे भगवान के दर्शन किये। यहाँपर काई जैनी नहीं रहता । इस ग्राममे ठाकुर (क्षत्रिय ) लोग रहते हैं। उनका दवदवा है अतः कोई रहना नहीं चाहता। फिर वैश्य जाति स्वभावसे भीरु है। यह द्रव्य उपार्जन करना जानते हैं परन्तु अन्य गुणोंसे भयभीत रहते हैं। लोभक वशीभूत हो श्रात्मीय प्रतिष्टासे च्युत रहते हैं। यह दान करनेमें शूर हैं परन्तु मर्वोपयोगी कार्यों में व्यय नहीं करेंगे। यही कारण है कि सामान्य जनता
आकर्पित नहीं कर पाते । व्यापार इनकी श्रायका साधारण निमिन है कृपि करनेको हेय मानते हैं। यद्यपि वैश्यका कृषिकर्म आगम विहित है परन्तु उसे हिंसाका कार्य बनाकर दयाका पालन करते हैं