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मेरी जीवन गाथा है। विश्वासके साथ ज्ञान और चारित्रका भी उदय होता है क्योंकि ये दोनों गुण स्वतन्त्र हैं अतः उसी कालमे उनका भी परिणमन होता है । हमे आवश्यकता श्रद्धागुणकी है परन्तु वह श्रद्धा, सामान्य विशेष रूपसे जब तक पदार्थोंका परिचय न हो तब तक नहीं होती।
सप्तमीके दिन नीचे लश्करवालोंके मन्दिरमें प्रवचन हुआ। उपस्थिति अल्प थी परन्तु जितने महानुभाव थे विवेकी थे । शान्तिसे सब लोगोंने शास्त्रश्रवण किया। पश्चात् स्थानपर आये व चर्याके लिये गये । एक स्थानपर चर्या की। लोग निरन्तर चर्या करानेकी इच्छा करते हैं परन्तु विधिका बोध नहीं। परमार्थसे चर्या तो उसके यहाँ हो सकती है जो स्वयं शुद्ध भोजन करे। जिनके शुद्ध भोजनका नियम नहीं उनके यहाँ भोजन करना आम्नायके प्रतिकूल है। परन्तु हम लोगोंने तो केवल शास्त्र पढ़ना सीखा है उसके अनुकूल प्रवृत्ति करना नहीं अतः हम स्वयं अपराधी हैं। उचित तो यह था कि हम उनको प्रथम उपदेश करते पश्चात् उनकी प्रवृत्ति देखते। यदे वह अनुकूल होती तो उनके यहाँ भोजन करते अन्यथा स्थानान्तर चले जाते। अथवा यह वात विदित हो जाती कि उस घरमें भोजन हमारे उदेश्यसे वनाया गया है तो अन्तराय कर चले जाते । केवल गल्ववादसे कुछ तत्व नहीं। हम गल्पवादके भण्डार हैकरनेमे नपुंसक हैं। जब हम स्वयं आगमानुकूल चलनेमे असमर्थ हैं तव अन्यको उपदेश क्या देवेंगे ? अथवा देवें भी तो उनका क्या प्रभाव जनतापर हो सकता है ? जो जल स्वयं अग्नि सम्बन्यो उम्णावस्था धारण किये है क्या वह जल शीतलता उत्पन्न करेगा ? कदापि नहीं.."सोनागिरिम आठ दिन रहा।