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वरुयासागर में ग्रीष्म काल
चैत्र कृष्णा ६ संवत् २००७ को १ वजे श्री सिद्धक्षेत्र स्वर्ण गिरिसे दतिया के लिये प्रस्थान कर दिया । ५ बजे ढांक वंगलामे ठहर गये। बंगलामे जो चपरासी था वह जातिका ब्राह्मण था, बहुत निर्मल मनुष्य था, निर्लोभी था । उसने हमारे प्रति शिष्ट व्यवहार किया । वहाँ पर रात्रिभर सुखपूर्वक रहे। यह स्थान सोनागिरिसे
मील है । धूपका वेग बहुत था अतः मार्गमे बहुत ही कष्ट उठाना पड़ा । शरीरकी शक्ति हीन थी किन्तु अन्तरङ्गकी वलवत्तासे यह शरीर उसके साथ चला आया । तत्त्वदृष्टिसे वृद्धावस्था भ्रमणके योग्य नहीं । दौलतरामजीने कहा है 'अर्धमृतक सम बूढ़ापनौ कैसे रूप लखे आपनौ' पर विचार कर देखा तो वृद्धावस्था कल्याण मार्ग में पूर्ण सहायक है । युवावस्थामे प्रत्येक आदमी बाधक होता है । कहता है भाई ! अभी कुछ दिन तक संसारके कार्य करो पश्चात् वीतरागका मार्ग ग्रहण करना । इन्द्रियाँ विषय ग्रहणकी ओर ले जाती हैं, मन निरन्तर अनाप सनाप संकल्प विकल्प के चक्रमे फॅसा रहता है । जब अवस्था वृद्ध हो जाती है तब चित्त स्वयमेव विषयोंसे विरक्त हो जाता है ।
दूसरे दिन प्रातः ६ बजे ढाक बंगलासे ४१ मील चलकर एक नदी के पार महादेवजी के मन्दिरमें ठहर गये । पास ही जल कूप था । मन्दिरकी अवस्था कुछ जीर्ण है परन्तु पासमे ग्राम न होनेसे इसका सुधार होना कठिन है । यहाँ पर चिरगाँवसे २ आदमी आये और वहाँ चलनेके लिये बहुत श्राग्रह करने लगे । हमने स्वीकार कर लिया और कहा कि यदि झाँसी आ जाओगे