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फिरोजाबादकी र
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अनुराग भी परमात्मपदका घातक है तब वस्त्रमे मूर्च्छा रखकर अपनेको वीतरागी मानना क्या शोभा देता है । अनादि कालसे इसी मूछने आत्माको संसारका पात्र बना रक्खा है ।
आत्माकी परिणति दो प्रकारकी है -१ विकृति और २ अविकृति । विकृति परिणति ही संसार है । विकृति परिणतिमे ही यह आत्मा परको निज मानता है । और विकृति परिणति के अभाव मे परको पर और आपको आप मानने लगता है । इसीको स्वसमयकहता है । जिस समय आत्मा परसे भिन्न आत्माको मानता है उसी समय दर्शन ज्ञानमय जो आत्मा उसको छोड़ कर पर पदार्थोंमें निजत्वका अभिप्राय चला जाता है - नष्ट हो जाता है किन्तु चारित्र मोहके सद्भावमें अभी उनमे रागादिका संस्कार नहीं. जाता । इतना आवश्य है कि उन रागादि भावोका कर्तृत्व नहीं रहता । यही ही अमृतचन्द्र सूरि ने कहा है
कर्तृत्वं न स्वभावोऽस्यचितो वेदयितृत्ववत् । श्रज्ञानादेव कर्तायं तदभावादकारक ॥
अर्थात् आत्माका स्वभाव कर्तापना नहीं है । जैसे भोक्तृत्व नहीं है । अज्ञानसे आत्मा कर्ता बनता है और अज्ञानके अभावमें नहीं ।' चेतना आत्माका निज गुण है उसका परिणमन शुद्ध और अशुद्ध के भेदसे दो तरह का होता है । अशुद्ध अवस्थामें यह आत्मा पर पदार्थका कर्ता और भोक्ता बनता है और अज्ञानके अभाव में अपने, ज्ञानका ही कर्ता होता है । तदुक्तम्
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'ज्ञानादन्यत्रेदं ममेति चेतना श्रज्ञानचेतना । सा द्विविधा कर्मचेतना कर्मफलचेतना च ।'
अर्थात् ज्ञानसे अतिरिक्तका कर्त्ता आपको मानना यह कर्म