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मेरी जीवन गाथा
उसमें मोहके उदयमें रागादिक होते हैं । वे यद्यपि आत्माको उपादान शक्तिसे ही हुए हैं तथापि मोहजन्य होनेसे नैमित्तिक हैं । यह जीव उन्हें स्वभाव मान लेता हैं, यही इसकी भूल है । यही भूल अनन्त संसारका कारण है । जिन्हें अनन्त संसारसे पार होना हो वे इस भूलको त्यागें । संसारको निज मत बनाओ और न निजको संसार बनाओ। न तुम किसीके हो और न कोई तुम्हारा है किन्तु मोहके आवेगमे तुम्हे कुछ सूझता नहीं । यह विचार निरन्तर मेरे मनमें घूमता रहता हैं ।
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सेठ सुदर्शनलालजीका अत्यन्त श्राग्रहका था इसलिये, पौष शुक्ला १४ को जसवन्तनगर आ गये । यहाँ श्री ताराचन्द्रजी रपरिया, वैनाड़ा मटरूमलजी तथा श्री ख्यालीरामजी आगरा आये थे । सौरीपुर के लिये ५५०) का चन्दा हो गया । सौरीपुरमें श्वेताम्बरों तथा दिगम्बरोंके बीच कुछ संघर्ष है। संघर्षकी जड़ परिग्रह हैं । यद्यपि श्वेताम्बर समाजमे वर्तमान साधुसमागम पुष्कल है और वे लोग पठन-पाठनमे अपना समय लगाते हैं। कई विशिष्ट विद्वान् भी हैं किन्तु न जाने दिगम्बर समाजसे इतना वैमनस्य क्यों रखते हैं । धर्म वह भी अपना जैन मानते हैं और यह भी मानते हैं कि सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र ही मोका मार्ग है | चारित्रका लक्षण भी रागद्वेपकी निवृत्ति मानते हैं । वस्त्र रखकर भी यही अर्थ करते हैं कि इस परिग्रहमें हमको मूर्छा नहीं। तब समझमें नहीं आता कि दिगम्बर मुद्रासे इतनी घृणा क्यों करते हैं ? मूर्तिको सपरिग्रह बनाने में कोई प्रयत्न शेष नहीं रखते तथा कहते हैं कि यह वीतरागदेवकी मूर्ति है । यह सव पञ्चम कालका महत्त्व है । कल्याणका पथ तो केवल आत्मामें है । जहाँ अन्यकी अणुमात्र भी मूर्च्छा है वहाँ श्रेयोमार्ग नहीं । बन्धावस्था ही संसारकी जननी है, अन्यकी कथा छोड़ो परमात्मामे