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मथुरामें जैन सघका अधिवेशन 'सागरके समान मनुष्यको गम्भीर होना चाहिये। सिंहके सहश उसकी प्रकृति होना चाहिये । शरताकी पराकाष्ठा होना ही मनुप्यके लिये लौकिक और पारमार्थिक सुखकी जननी है। पारमार्थिक सुख कहीं नहीं, केवल लौकिक सुखकी आशा त्याग देना ही परमार्थ सुखकी प्राप्तिका उपाय है! सुख शक्तिका विकास पाकुलताके अभावसे होता है।' _ 'भगवन् | तुम अचिन्त्य शक्तिके स्वत्वमे क्यों दर दरके भिक्षुक बन रहे हो ? भगवन्से तात्पर्य स्वात्मासे है। यदि तुम अपनेको संभालो तो फिर जगत्को प्रसन्न करनेकी आवश्यकता नहीं।' ___"संसारसे उद्धार करनेके अर्थ तो रागादि निवृत्ति होनी चाहिये परन्तु हमारा लक्ष्य उस पवित्र मार्गकी ओर नहीं जाता। केवल जिससे रागादि पुष्ट हों उसी ओर अग्रेसर होता है । अनादि कालसे पर पदार्थोंको अपना मान रक्खा है उसी ओर दृष्टि जाती हैकल्याण मार्गसे विमुख रहते हैं।'
'सुखका कारण क्या है कुछ समझमें नहीं आता। यदि वाह्य पदार्थों को माना जावे तब तो अनादिकालसे इन्हीं पदार्थोंको अर्जन करते करते अनन्त भव व्यतीत हो गये परन्तु सुख नहीं पाया। इस पर्यायमे यथायोग्य बहुत कुछ प्रयत्न किया परन्तु कुछ भी शान्ति न मिली।' ___'संसारसे कोई भी पदार्थ स्थिर नहीं जो आज है वह कल नहीं रहेगा। संसार क्षणभंगुर है इसमे आश्चर्य की बात नहीं। हमारी आयु ७४ वर्ष की हो गई परन्तु शान्तिका लेश भी नहीं आया और न आनेकी संभावना है, क्योंकि मार्ग जो है उससे हम विरुद्ध चल रहे हैं। यदि सुमार्ग पर चलते तो अवश्य शान्तिका आस्वाद
आता परन्तु यहाँ तो उल्टी गङ्गा बहाना चाहते हैं। धिक इस विचारको जो मनुष्यजन्मकी अनर्थकता कर रहा है। केवल