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मेरी जीवन गाथा
अग्निका सम्बन्ध पा कर जलमें जो उष्णता आ जाती है वह उसका स्वाभाविक भाव नहीं किन्तु औपाधिक भाव है अतः अग्निका सम्बन्ध दूर होने पर स्वयमेव विलीन हो जाती है इसी प्रकार मोह दूर होने पर आत्मासे रागादि भाव स्वयमेव विलीन हो जाते हैं-दूर हो जाते हैं।
द्वादशीसे पीड़ा अधिक बढ़ गई अतः स्वाध्यायमें समर्थ नहीं हो सका । शरीर यद्यपि पर है और हम तथा अन्य वक्ता भी यही निरूपण करते हैं। श्रद्धा भी यही है कि यह पर है परन्तु जब कोई
आपत्ति आती है तब ऊपरसे तो वही बात रहती है किन्तु अन्तरङ्गमें वेदन कुछ और ही होने लगता है। श्रद्धा तथा ज्ञान मात्रसे कल्याण नहीं। साथमे चारित्र गुणका भी विकाश होना चाहिये। हम अन्तरङ्गसे चाहते हैं। हम भी क्या प्रायः अधिकतर प्राणी चाहते हैं कि रागादि दोषोंकी उत्पत्ति न हो क्योंकि ये समान आकुलताके उत्पादक हैं। आकुलता ही दुःख है । ऐसा कौन है जो दुःखके कारणको इष्ट मानेगा ? किन्तु लाचार है। जब रागादिक होते हैं और तज्जन्य पीड़ा नहीं सहन कर सकता तब चाहे किसीसे प्रतिकूल हो चाहे अनुकूल हो उन्हें शान्त करनेके लिये यह जीव चेष्टा करता है। जैसे पिता जव पुत्रके कपोलका चुम्बन करता है तब उसकी कड़ी मूछोंका स्पर्श पुत्रको यद्यपि कष्टप्रद होता है तो भी वह कपोलोंका चुम्बनकर प्रसन्न होता है। . इसी फोड़ाके रहते हुए ५ वर्प वाद हमारे अत्यन्त प्राचीन मलेरिया मित्रने दर्शन दिया। उसने कहा तुम भूल गये हमको । तुमने कितने वादे लिये पर एकका भी पालन नहीं किया । उसीका यह फल है कि आज मैंने तो तुन्हे दर्शन दिया। चार दिन पहले मैने अपने लघु मित्र फोड़ाको भेजा था और उसके हाथ आदेश दिया था कि चार मासका वर्षायोग पूर्ण होनेके पहले कहीं नहीं