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मेरी जीवन गाथा कर दिया उसके सुखका वर्णन कौन कर सकता है ? सम्यग्ज्ञानकी उपादेयता पर प्रकाश डालते हुए मैंने भी कुछ कहा। पं० राजेन्द्र कुमारजीने जैनधर्मके वन्ध तत्त्व पर अच्छा प्रकाश डाला । उद्घाटन समारोहके अनन्तर विद्वत्परिपद्की कार्यकारिणीकी बैठक हुई। उसमें खास चर्चा का विषय यह था कि धवल सिद्धान्तके ६३ वें सूत्रमें 'संजद पद आवश्यक है' ऐसा निर्णय सागरमें एकत्रित विद्वत्सम्मेलनने बहुत ही तर्क वितर्क-ऊहापोहके साय किया था उसके लगभग ३ साल बाद श्रीमान् आचार्य शान्तिसागरजी महाराजने ताम्रपत्रकी प्रतिसे 'संजद' पद हटानेका आदेश दिया। इस आदेशका विचारक विद्वानोंके हृदय पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ा। कार्यकारिणीमे इस विषयको लेकर निम्न प्रकार प्रस्ताव प्पास हुआ~~
'फाल्गुन शुक्ला ३ वीर निर्वाण संवत् २४७६ को गजपन्थामें आचार्य श्री १०८ शान्तिसागरजी महाराज द्वारा की गई जीवस्थान सत्प्ररूपणाके ६३ वे सूत्रसे ताडपत्रीय मूल प्रतिमे उपलब्ध 'संजद' पदके निष्कासनकी घोषणापर विचार करनेके बाद भारतवर्षीय दि० विद्वत्परिषद्की यह कार्यकारिणी जून सन् ४७ में सागरमे आयोजित विद्वत्सम्मेलनके अपने निर्णयको दुहराती है तथा इस प्रकारसे ताम्रपत्रीय एवं मुद्रित प्रतियोंमें 'संजद' पद निष्कासनकी पद्धतिसे अपनी असहमति प्रकट करती है।'
वैठक समाप्त होनेपर विद्वान् लोग तो अपने अपने स्थानपर चले गये पर मेरे मनमे निरन्तर यह विकल्प उठता रहा कि एक ऐसा अवसर आता जो ५ निष्णात विद्वान् एक निरापद स्थानमें निवास कर जैनधर्मके मार्मिक सिद्धान्तको जनताके समक्ष निर्भीक होकर वचनों द्वारा प्रख्यापन करते तथा यह कहते आप लोग इसका निर्णय करें। यदि आप महाशयोंके परीक्षा विमर्शमें यह तत्व अभ्रान्त ठहरे