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रक्षाबन्धन और पर्यापण
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सत्य वातको स्वीकार करना चाहिये और समता भावसे ही असत्य बातका निराकरण करना चाहिये । यहाँ भाद्रपद शुक्ल १० के दिन पण्डितगणोंमें परस्पर कुछ वार्तालापकी विषमता हो गई । विपमताका कारण 'परमार्थसे हमारी प्रतिष्ठामे कुछ बट्टा न लगे' यद् भाव था । तत्त्वसे देखो तो आत्मा निर्विकल्प हैं उसमे यशोलिप्सा ही व्यर्थ है । 'यश तो नामकर्मकी प्रकृति है । यशसे कुछ मिलता जुलता नहीं है । जिस वक्ताने शास्त्रप्रवचनमें यशकी लिप्सा रक्खी उसका २ घंटे तक गन्नेकी नशें खींचना ही हाथ रहा, स्वाध्यायके लाभसे वह दूर रहा इसी प्रकार जिस श्रोताने वक्त की परीक्षाका भाव रक्खा या अपनी वात जमानेका अभिप्राय रक्खा उसने अपना समय व्यर्थ खोया । वक्ताका भाव तो यह होना चाहिये कि हम अज्ञानी जीवोंको वीतराग जिनेन्द्रकी सुनाकर सुमार्ग पर लगावें और श्रोताका भाव यह होना चाहिये कि बक्ताके श्रीमुखसे जिनवाणीके दो शब्द सुन अपने विषय कपायको दूर करें ।
पर्व के वाद आश्विन कृष्णा प्रतिपदा क्षमावरणीका दिन था परन्तु जैसा उसका स्वरूप है वैसा हुआ नहीं । केवल प्रभावना होकर समाप्ति हो गई । परमार्थसे अन्तरसमें शान्तिभाव की प्राप्ति हो जाना यही क्षमा है सो इस ओर तो लोगों की दृष्टि है नहीं केवल ऊपरी भावसे क्षमा माँगते हैं. एक दूसरे के गले लगते हैं । इससे क्या होनेवाला है ? और खास कर जिससे बुराई होती है उसके पास भी नहीं जाते उससे वोलते भी नहीं, इसके विपरीत जिससे बुराई नहीं उसके पास जाते हैं. उसके गले लगते हैं, उसे क्षमावणी पत्र लिखते हैं आदि। यह सव क्या क्षमावरणी उत्सवका प्राणशून्य नहीं है ?
आश्विन कृष्ण ४ सं० २००७ को मेरे जन्मदिनका उत्सव