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मेरी जीवन गाथा
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था । पं० राजेन्द्रकुमारजी, पं० नेमिचन्द्रजी ज्योतिषाचार्य, पं० चन्द्रमौलिजी, पं० पञ्चरत्नजी. कवि चन्द्रसेनजी, पं० खुशालचन्द्रजी तथा राजकृष्णजी आदि बाहर से आये । जयन्ती उत्सवोंमें जो होता है वही हुआ. सबने प्रशंसामें चार शब्द कहे और हमने नीची गरदनकर उन्हे सुना । दूसरे दिन रतनलालजी मादेपुरिया, महावीरप्रसादजी ठेकेदार दिल्ली तथा फीरोजाबादसे छदामीलालजी भी आये । छदामीलालजीने आग्रह किया कि आप फीरोजाबाद आवें । हम कुछ करना चाहते हैं और अच्छा कार्य करेंगे । हम वहाँ एक सुन्दर मन्दिर और एक उद्योग विद्यालय खोलना चाहते हैं । पं० राजेन्द्रकुमारजी तथा खुशाल चन्द्रजीने भी इस पर जोर डाला तथा यह आग्रह किया कि वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थके समर्पणका समारोह यहाँ न हो कर फिरोजाबाद में ही हो। मैंने कहा कि अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पणकी बात मैं नहीं जानता पर आप लोगोंका यदि कुछ काम करनेका भाव है और मेरे वहाँ पहुँचनेमे वह फलीभूत होता है तो दीपावली बाद मैं चलूँगा । मेरा उत्तर सुन उ हैं प्रसन्नता हुई ।
सब लोग अपने अपने घर गये और पर्यूषण पर्व सम्बन्धी चहल-पहल भी जयन्ती उत्सव के साथ समाप्त हुई । मनमें व्यग्रताका अभाव हुआ तथा निम्नाङ्कित भावना प्रकट हुई
चाहत जो मन शान्ति सुख तजहु कल्पना, नाल | व्यर्थ भरमके भूतमें क्यों होते वेहाल यह जगकी माया विकट जो न तजोगे मित्र । तो चहुँगतिके बीचमें पावोगे दुख चित्र ॥ २ ॥
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