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अष्टाह्निका पर्व
१७३ अनादिकालसे मोह मदका ऐसा प्रभाव है कि आपापरकी ज्ञप्तिसे वञ्चित हो रहा है। संसार एक अशान्तिका भण्डार है इसमें शान्तिका अत्यन्त अनादर है, वास्तवमें अशान्तिका अभाव ही शान्तिका उत्पादक है। अशान्तिके प्रभावसे सम्पूर्ण जगत् व्याकुल है। अशान्तिका वाच्यार्थ अनेक प्रकारकी इच्छाएं हैं। ये ही हमारे शान्ति स्वरूपमे बाधक हैं जब हम किसी विषयकी अभिलाषा करते हैं तब आकलित हो जाते हैं, जब तक इच्छित विषयका लाभ न हो तव तक दुखी रहते हैं। अन्तरगसे यदि यह वात उत्पन्न हो जाय कि प्रत्येक द्रव्य स्वमे परिपूर्ण है उसे पर पदार्थकी आवश्यकता नहीं। जब तक पर पदार्थकी आवश्यकता अनुभवमें आती है तब तक इसे स्वद्रव्यकी पूर्णतामे विश्वास नहीं "तो परकी आकांक्षा मिट जाय और परकी आकांक्षा मिटी कि अशान्तिने कूच किया । जो मनुष्य शान्ति चाहते हैं वे परजनोंके संसर्गसे सुरक्षित रहे । परके संसर्गसे बुद्धिमें विकार आता है विकारसे चित्तमे आकुलता होती है। जहाँ आकुलता है वहाँ शान्ति नहीं, शान्ति विना सुख नहीं और सुखके अर्थे ही सर्व प्रयास मनुष्य करता है। अनादिसे हमारी मान्यता इतनी दूषित है कि निजको जानना ही असंभव है। जैसे खिचड़ी खानेवाला मनुष्य केवल चावलका स्वाद नहीं बता सकता वैसे ही मोही जीव शुद्ध आत्मद्रव्यका स्वाद नहीं बता सकता। मोहके उदयमे जो ज्ञान होता है उसमे पर ज्ञेयको निज माननेकी मुख्यता रहती है । यद्यपि पर निज नहीं परन्तु क्या किया जावे । जो निर्मल दृष्टि है वह मोहके सम्बन्धसे इतनी मलिन हो गई है कि निजकी
ओर जाती ही नहीं। इसीके सद्भावमे जीवकी यह दशा हो रही है उन्मत्तक (धतूरा) पान करनेवालेकी तरह अन्यथा प्रवृत्ति करता है अतः इस चक्रसे बचनेके अर्थ परसे ममता त्यागो केवल वचनोंसे व्यवहार करनेसे ही संतोष मत कर लो । जो मोहके साधक हैं उन्हें