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मेरी जीवन गाथा त्यागो। जैसे पञ्चेन्द्रियोंके विपय त्यागनेसे ही मनुष्य इन्द्रिय विजयी होगा कथा करनेसे कुछ तत्व नहीं निकलता । वात असलमे यह है कि हमारे इन्द्रियजन्य ज्ञान है इस ज्ञानमे जो पदार्थ भासमान होगा उसी ओर तो हमारा लक्ष्य जावेगा उसीकी सिद्धिके अर्थ हम प्रयास करेंगे चाहे वह अनर्थकी जड क्यो न हो। अनर्थकी जड़ बाह्य वस्तु नहीं, वह तो अध्यवसानमे विपय पडती है अतएव वाह्य वस्तु बन्धका जनक नहीं श्रीकुन्दकुन्ददेवने लिखा है
वत्थु पडुच्च जं पुण अज्झवसाणं तु होदि जीवाण ।
ण हि वत्युदो बंधो अज्झवसाणेण बंधो दु॥ पदार्थ को निमित्त पाकर जो अध्यवसान भाव जीवों को होता है वही वन्धका कारण है, पदार्थ वन्धका कारण नहीं है ।
यहाँ कोई कह सकता है कि यदि ऐसा सिद्धान्त है तो बाह्य वस्तुका त्याग क्यो कराया जाता है ? तो उसका उत्तर यही है कि अध्यवसान न होनेके अर्थ ही कराया जाता है। यदि बाह्य पदार्थके आश्रय विना अध्यवसान भाव होने लगे तो जैसे यह अध्यवसान भाव होता है कि मैं रणमे वीरसू माताके पुत्रको मारूँगा वहाँ यह भी अध्यवसान भाव होने लगे कि मैं बन्ध्यापुत्रको प्राण रहित करूँगा परन्तु नहीं होता क्योंकि मारणक्रियाका आश्रयभूत बन्ध्यासुत नहीं है अत: जिन्हे वन्ध न करना हो वे वाद्य वस्तुका परित्याग कर देवें । परमार्थसे अन्तरङ्ग मूर्छाका त्याग ही बन्धकी निवृत्तिवा कारण है। मिथ्या विकल्पोको त्याग कर यथार्थ वस्तु स्वम्पक निर्णयमे अपनेको तन्मय करो अन्यथा नसो भवचक्रके पात्र रद्दागे। तुम विश्वसे भिन्न हो फिर भी विश्वको अपनाते हो उसमें मूल ज मोह है जिनके वह नहीं वह मुनि हैं, ये अव्यवमान यादि भाष