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मेरी जीवन गाथा
भावना है । इससे व्रतीको सदा यह भय बना रहता है कि कहीं मेरी हृदयकी दुर्बलता कोई जान न जावे । इसी तरह जिस व्रतको धारण किया है उसमें पूर्ण श्रद्धा होना चाहिये । उसके विना मिथ्यात्व अवस्था रहेगी तथा श्रद्धाकी दृढ़ता न होनेसे आचार भी निर्मल नहीं रह सकेगा इसलिये जितना आचरण किया जाय उनका विवेक और श्रद्धा के साथ किया जाय । यदि व्रतीके विवेक नहीं होगा तो वह उत्सूत्र प्रवृत्ति करेगा और अपनी उस प्रवृत्तिसे जनता पर आतंक जमानेकी चेष्टा करेगा । यदि भाग्यवश जनता विवेकती हुई और उसने उसकी उत्सूत्र प्रवृत्तिकी आलोचना शुरू कर दी तो इससे हृदयमे क्षोभ उत्पन्न हो जायगा जो निरन्तर अशान्तिका कारण होगा । इसके सिवाय व्रतीको व्रत धारण कर उसके फलस्वरूप किसी भोगोपभोगकी आकांक्षा नहीं रखनी चाहिये, क्योकि ऐसा करनेके कारण उसकी आत्मामे निर्मलता नहीं आ सकेगी। जहाँ स्वार्थी गन्ध है वहाँ निर्मलता कैसी ? व्रतीको तो केवल यह भावना रखना चाहिये कि पापका परित्याग करना हमारा कर्तव्य है जिसे मैं कर रहा हूँ । इससे क्या फलकी प्राप्ति होगी ? इस प्रपञ्चमे पड़नेकी आवश्यकता नही । एक बार सही मार्गपर चलना शुरू कर दिया तो लक्ष्य स्थानकी प्राप्ति अवश्य होगी उसमे सन्देहकी बात नहीं है ।
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त्यागका अर्थ छोड़ना है, पर जब ग्रहण हो तभी न छोड़ना वने । संसारके समस्त पदार्थं अपना अपना चतुष्टय लिये स्वतन्त्र स्वतन्त्र विद्यमान हैं । किसीको ग्रहण करनेकी किसीमे सामर्थ्य
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