________________
पर्व प्रवचनावली
३८६
1
नहीं | हमारा कमण्डलु वहां रक्खा और मैं यहां बैठा, मैंने कमण्डलुको क्या ग्रहरण कर लिया ? आपकी सम्पत्ति आपके घर है । आप यहां बैठे हैं । आपने सम्पत्तिको क्या ग्रहण कर लिया ? जब ग्रहण ही नहीं किया तब त्यागना कैसा ? वाह्यमे तो ऐसा ही है परन्तु मोहके कारण यह जीव उन पदार्थोंमे 'ये मेरे हैं' 'मैं इनका स्वामी है इस प्रकारका मूर्च्छाभाव लिये बैठा है वही मूर्च्छाभाव छोड़ने का नाम त्याग है । जिसका यह मूर्च्छाभाव छूट गया उसकी आत्मा निःशल्य हो गई । यह मनुष्य पर पदार्थको अपना मान उसके sg अनिष्ट परिणमनसे व्यर्थ ही हर्प - विपादका अनुभव करता है । यदि परमे परत्न और निजमे निजत्व बुद्ध तो त्यागका आनन्द उपलब्ध हो जावे । इस तरह निश्चयसे ममता भावको छोडना त्याग कहलाता है । वहिरङ्गमे आहार, औषधि, ज्ञान तथा अभयसे त्यागके चार भेद हैं । जब यहां भोगभूमि थी नव नवकी एकसी दशा थी, कल्पवृक्षोंसे सबकी इच्छाएं पूर्ण होती थीं इसलिये किसीसे किसीको कुछ प्राप्त करनेकी आवश्यकता नहीं थी । मुनिमार्गका भी प्रभाव था इसलिये श्रहारादि देना अनावश्यक था परन्तु जवसे कर्मभूमि प्रचलित हुई और विषमता को लिए हुए मनुष्य यहा उत्पन्न होने लगे तवसे पारस्परिक सहयोग की आवश्यकता हुई । मुनिमार्गका भी प्रचलन हुआ इसलिये आहारादि देना आवश्यक हो गया । फलस्वरूप उसी समयसे त्याग धर्मका आविर्भाव हुआ । दाताको हृदयसे जब तक लोभ कषायकी निवृत्ति नहीं होती तब तक वह किसीके लिये एक कपर्दिका भी देनेके लिये तैयार नहीं होता पर जब अन्तरङ्गसे लोभ निकल जाता है तब छह खण्डका वैभव भी दूसरेके लिये सौंपनेमे देर नहीं लगती । मुनिने श्रावकसे आहार लिया, श्रावक ने भक्तिपूर्वक दिया इसमे दोनोंका कल्याण हुआ । दाताको तो इसलिये हुआ कि उसकी आत्मासे लोभकषायकी निवृत्ति हुई और