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________________ ३८७ पर्व प्रवचनावली तुपमात्रको भिन्न भिन्न जाननेवाले मुनिको केवलज्ञानकी प्राप्ति बताकर मोक्ष पहुंचने की बात लिखो है अतः ज्ञान थोड़ा भी हो तो हानि नहीं परन्तु मिथ्या न हो उस चातका ध्यान रक्खो। सप्तम अध्यायमे आपने शुभातवका वर्णन सुनते समय अहिंसादि पाँच व्रतोंका वर्णन सुना है। उसमे उन्होंने उन व्रतोंकी स्थिरताके लिए पाँच पाँच भावनाओंका वर्णन किया है। उसपर ध्यान दीजिये। जिन कामोसे व्रतमे वाधा होती दिखी उन्हीं उन्हीं कामोपर प्राचार्यने पहरा बैठा दिया है । जैसे मनुप्य हिंसा करता है तो किन किन कार्योसे करता है ? १ वचनसे कुछ बोलकर, २ मनसे कुछ विचार ३शरीरसे चलकर, ४ किन्हीं वस्तुओंको रख तथा उठाकर और ५ भोजन ग्रहणकर इन पाँच कार्योंसे ही करता है। आचार्यने इन पाँचो कार्योंपर पहरा वैठाते हुए लिखा है 'वाइमनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकितपानभोजनानि पञ्च' अर्थात् वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्यासमिति, आदाननिक्षेपण समिति और आलोकित्तपानभोजन इन पाँच कार्यों से अहिसा व्रतकी रक्षा होती है। इसी प्रकार सत्यव्रत, अचौर्यव्रत, ब्रह्मचर्यव्रत और परिग्रहत्यागव्रतकी बात समझना चाहिये। उन्होंने एक बात और लिखी है 'निःशल्यो व्रती' अर्थात व्रतीको निःशल्य होना चाहिये। माया, मिथ्यात्व और निदान ये तीन शल्य हैं। ये काँटेकी तरह सदा चुभती रहती हैं इसलिये व्रतीको इनसे दूर रहना चाहिये । मायाका अर्थ है भीतर कुछ और बाहर कुछ । व्रतीको ऐसा कभी नहीं होना चाहिये । कितने ही व्रती अन्तरङ्गमे कुछ हैं और लोक व्यवहारमे कुछ और ही प्रवृत्ति करते हैं। जिसकी ऐसी प्रपञ्चसे भरी वृत्ति है वह व्रती कैसे होसकता है ? हृदय यदि दुर्बल है तो कठिन व्रत कभी धारण नहीं करो तथा हृदयकी दुर्वलता छिपाकर बाह्य प्रवृत्तिके द्वारा उन्नत वननेकी भावना निन्द्य
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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