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मेरी जीवन गाया आया है ? उन्होंने उसे बुलाया और पूछा कि तुम्हारे पास क्या क्या औपधियाँ है ? उसने जो रोग उनके शरीर पर दिख रहे थे उन सबकी औषधियाँ वता दी। मुनिराजने कहा कि भाई ! ये रोग तो मुझे हैं नहीं। ये सब शरीरमें अवश्य हैं पर उसके साथ मेरा क्या सम्बन्ध है ? मैं तो आत्मद्रव्य हूँ जो कि इससे मर्वथा भिन्न है। उसे उन रोगोंमेंसे एक भी रोग नहीं है। हाँ, उसे जन्मसरणका रोग है। यदि तुम्हारे झोलामे उसकी ओरधि हो तो देओ। वैद्य असली रूपमें प्रकट हो चरणोंमें गिर कर कहता है कि भगवन् ! इस रोगकी औषधि तो आपके ही पास है । म देव लोग तो इसकी ओषधि जो तप है उससे वञ्चित ही रहते हैं। चाहते हैं कि तप करें पर हमारा यह क्रियिक शरीर उसमे बावक है। कहनेका तात्पर्य यह है कि यदि किसी तरह गृहस्थीके जालसे छुटकारा मिला है तो दूसरे जालमे नहीं फंसना चाहिये और निर्द्वन्द्व होकर आत्माका कल्याण करना चाहिये।
अन्तरङ्ग तपोंमें स्वाध्यायको भी तप बताया है। स्वाध्यायसे आत्मा और अनात्माका वोध होता है इसलिये प्रमाद छोड़कर स्वाध्यायमें प्रवृत्ति करना चाहिये। आचार्योंकी बुद्धि तो देखो, उन्होने शास्त्र पढ़नके लिये 'स्वाध्याय' यह कितना सुन्दर शब्द चुना है। अरे शान्त्र पढ़ते हो तो उसके लिये 'शाखाध्याय' साठ चुनते पर उन्होंने स्वाध्याय शब्द चुना है। इसका तात्पर्य यह है. कि शान पढ़कर स्वको पढ़ो-अपनं अापको पहिचानो। यदि ग्यारह अङ्ग और नी पूर्वको पढ़नके बाद भी स्त्रको नहीं पढ़ सके तो उस भारभूत ज्ञानसे कौन सा लाभ होनेवाला है ? उतना तान तो इस जीवन अनन्तवार प्राप्त किया परन्तु संसार गरम पार नहीं हो सका । जैन सिद्धान्तमें अनेक शात्रोंको जानकी प्रतिष्टा नहीं है किन्तु सम्बन्बानकी प्रतिष्टा है। यहाँ तो मार