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पर्व प्रवचनावली
३८५ पदार्थों में मध्यस्थ हो मन वचन कायकी प्रवृत्तिको रोकते हैं। अन्यत्र तपका प्रयोजन संसार है तो यहां तपका प्रयोजन मोक्ष है। परमार्थसे तप मोक्षका ही साधन है। उसमे यदि कोई न्यूनता रह जाती है तो सांसारिक सुखका भी कारण हो जाता है । जैसे खेती का उद्देश्य अनाज प्राप्त करना है। यदि पाला आदि पड़नेसे अनाज प्राप्त करनेमें कुछ कमी हो जाय तो पलाल कौन ले गया, वह तो प्राप्त होगा ही इसी प्रकार तपश्चरणसे मोक्ष मिलता है। यदि कदाचित् उसकी प्राप्ति न हो सकी तो स्वर्गका वैभव कौन छीन लेगा ? वह तो प्राप्त होगा ही।
पद्मपुराणमे विशल्याकी महिमा आपने सुनी होगी। उसके पांस आते ही लक्ष्मणके वक्षःस्थलसे देवोपनीत शक्ति निकलकर दूर हो गई। इसमे विशल्याका पूर्व जन्ममे किया हुआ तपश्चरण ही कारण था। निर्जन वनमें उसने तीन हजार वर्ष तक कठिन तपश्चरण किया था । तपश्चर्याके प्रभावसे मुनियोंके शरीरमे नाना प्रकारकी ऋद्धियां उत्पन्न होती हैं पर वे उनकी ओरसे निर्भान ही रहते हैं । विष्णुकुमार मुनिको विक्रिया ऋद्धि उत्पन्न थी पर उन्हें इसका पता ही नहीं था। क्षुल्लकके कहनेसे उनका उस ओर ध्यान गया । सनत्कुमार चक्रवर्ती तपश्चरण करते थे। दुष्कर्म के उदयसे उनके शरीरमे नाना प्रकारके रोग उत्पन्न हो गये फिर भी उस ओर उनका ध्यान नहीं गया। एक वार इन्द्र की सभामे इसकी चर्चा हुई तो एक देव इनकी परीक्षा करने के लिये आया । जहाँ वे तप करते थे वहाँ वह देव एक वैद्यका रूप धरकर चक्कर लगाने लगा तथा उनके शरीर पर जो रोग दिख रहे थे उन सबकी औषधि अपने पास होनेकी टेर लगाने लगा । एक दो दिन हो गये। मुनि विचार करते हैं कि यदि यह वैद्य है तो नगरसे क्यों नहीं जाता ? यहाँ क्या झाड़-झंखाड़ोंकी औपधि करने
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