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• मेरठकी ओर
४. परम्परागत अधिकारोंसे वञ्चित होना पड़ा तथा अंग्रेजोंका अखण्ड प्रताप अस्त हो गयां वहाँ हमारी इस दशा पर आश्चर्यकी कौन वात है ? अथवा अन्यकी कथा त्यागों आप स्वयं अपनी दशाको देखो। क्या चालीस वर्ष पहले आप इसी तरह यष्टिके सहारे चलते थे ? अस्तु, इस कथाको छोड़ो और मन्दिरमें शास्त्र प्रवचन कीजिये । अनुकूल कारणके सद्भावसे चित्तमे शान्तिका परिचय हुआ। आत्मानुशासनका स्वाध्याय किया- - - - - .. श्री गुणभद्राचार्यका कहना है कि हे आत्मन् । तुम दुःखसे भयभीत होते हो और सुखकी वाँछा करते हो अतः जो तुम्हे अभीष्ट है उसीका हम अनुशासन करेंगे। देखा जाता है संसारमें प्राणीमात्र दुःखसे डरते हैं और सुखकी अभिलाषा करते हैं । यदि उनकी अभिलाषाके अनुकूल उन्हें मार्ग मिल जाता है तो उनकी आत्माको शान्ति हो जाती है परन्तु यह संसार है, अनन्त दुःखोंका भण्डार है इसमें अनुकूल मार्गदर्शकोंकी अत्यन्त त्रुटि है.। . . . . . जना धनाश्च वाचालाः सुलभाः स्युवथोत्थिताः।
दुर्लभा घन्तरार्द्रा ये जगदम्युजिहीर्षवः ॥ . अर्थात् संसारमें ऐसे मनुष्य और मेघ सुलभ हैं जो वाचाल और वृथा गर्जना करनेवाले हैं। जगत्के मनुष्योंको व्यामोहमें डालनेवाले शब्दोंकी सुन्दर सुन्दर रचना द्वारा अपनेको कृतकृत्य माननेवाले मनुष्योंकी गणनातीत संख्या है इसी प्रकार घटाटोपसे गर्जन करनेवाली अगणित मेघमालाएँ आकाशपथमें प्रकट होकर विलीन हो जाती हैं परन्तु जलशून्य होनेके कारण जगत्की उपकारिणी नहीं होती। अतः बन्धुवर्ग! जो वक्ता आत्महितका उपदेश करें मन्दकषायी हो, निर्लोभ, निर्मान, निर्माय तथा क्षमा गुण संयुक्त हों उनके मुखसे शास्त्र श्रवण कर आत्मकल्याणके