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मेरी जीवन गाथा
कुन्दकुन्द महाराजके वचन मिश्रीके कण हैं। मिश्रीका जो भी कण खाया जायगा वह मीठा होगा । इसी प्रकार कुन्दकुन्द महाराजका जो भी वचन या गाथा आपके चिन्तनमे आवेगा वह आपको आनन्ददायी होगा।
दिनके दो वजेसे सभा थी। उसमे बहुतसे नर-नारी आये । श्री पूर्णसागर महाराज चिदानन्दजी महाराजका व्याख्यान हुआ । समयकी बलवत्ता है कि अब अष्टमूलगुण पालनका उपदेश दिया जाता है। जैनियोंका जो कौलिक धर्म था उसका अव उपदेश होने लगा है। लोगोंके आचरण अत्यन्त गिर गये हैं। जैनधर्मकी व्यवस्था तो इतनी उत्तम है कि उसका पालन करनेसे सहज ही कल्याणका पथ मिल सकता है। श्री पं० चन्द्रमौलि शाखीने गुरुकुलकी अपील की तथा श्री समगौरयाजीने समर्थन किया। चन्दा प्रारम्भ हो गया। पाँच हजारके अन्दाज चन्दा हो गया। रात्रिमे फिर चन्दा हुआ। सव मिलाकर १८ हजारका चन्दा हो गया । जैनियोंमें दान करनेका गुण नैसर्गिक है। निमित्त मिलने पर वह अनायास ही प्रकट हो जाता है। अगले दिन प्रातःकाल फिर प्रवचन हुआ पर मैं अव प्रवचनका पात्र नहीं। मेरी शक्ति क्षीण हो गई है। वचन वर्गणा स्पष्ट नहीं। केवल मनुष्योंको रञ्जन करना तात्त्विक मार्ग नहीं। तात्त्विक मार्ग तो वह है जिसमे आत्माको शान्ति मिले । पर शान्ति राग द्वेषकी प्रचुरतासे अत्यन्त दूर है, क्योंकि परपदार्थाम जो इष्टानिष्ट कल्पना होती है उसका मूल कारण ही मोह हे और मोहसे पर पदार्थोंमें आत्मीय बुद्धि होती है। आत्मीय बुद्धि ही रागका कारण है। आजका जनसमूह गल्पवादका रसिक है। वास्तविक तत्त्वका महत्व नहीं समझता। केवल बाह्य आडम्बरमे निज धर्मकी प्रभावना चाहता है। प्रभावनाका मूल कारण ज्ञान