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मुजफ्फरनगर
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भाग्यवश मोहका पटल कुछ क्षीण होता है तो शरीरसे पृथक् आत्माकी सत्ता अंगीकार करने लगता है, परन्तु कर्मोदयसे आत्माकी जो विकृत दशा है उसे ही शुद्ध दशा या स्वाभाविक दशा मान उसीरूप रहना चाहता है। कर्मोदय भगुर है, इसलिये उसके उदयमे होनेवाली आत्माकी दशा भी भङ्गुर होती है। पर यह मोही प्राणी यथार्थ रहस्य न समझ हर्षविषादका पात्र होता है। जव मोहका उदय विल्कुल दूर होता है तब इसे आत्माकी शुद्ध दशाका अनुभव होने लगता है। पद्मराग मणिके सम्पर्कसे स्फटिकपे जो लालिमा दिखती है उसे अज्ञानी प्राणी स्फटिककी लालिमा समझता है पर विवकी प्राणी यह समझता है कि स्फटिक तो अत्यन्त स्वच्छ है। यह लालिमा पद्मराग मणिकी है। इसी प्रकार वर्तमानमें हमारी आत्मा रागी द्वेषी हो रही है सो यह मोहजन्य विकृतिका चमत्कार है। अज्ञानी प्राणी इस अन्तरको न समझ आत्माको ही रागी द्वषी मान वैठता है, परन्तु विवेकी प्राणी यह जानता है कि आत्मा तो सदा स्वच्छ तथा निर्विकार है। उस पर जो वर्तमानमें विकार चढ रहा है वह मोहजन्य है। जो द्रव्य, जो गुण और जो पर्याय अरहन्तकी है वही द्रव्य, वही गुण और वही पर्याय मेरी है। जिस प्रकार इनका चेतन द्रव्य केवल ज्ञानादि क्षायिक गुणोंसे उद्भासमान होता हुआ परमात्मपर्यायको प्राप्त हुआ है उसी कार हमारा चेतनद्रव्य भी उक्त गुणांसे उद्भासमान होता हुआ परमात्मपर्यायको प्राप्त हो सकता है। जब आत्मामे ऐसा विचार उठता है-विवेकरूपी ज्योतिका आविर्भाव होता है तब उसका मोह स्वयं दूर हो जाता है और ज्ञानघन आत्मा निर्द्वन्द्व रह जाता है। यही इस जीवकी सुखमय अवस्था है। इसे ही प्राप्त करनेका निरन्तर प्रयत्न होना चाहिये ।