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पर्व प्रवचनावली प्रवृत्तिका नाम समिति है। मनुप्य चलता है, बोलता है, खाता है, किसी वस्तुको छाता धरता है और मलमूत्रादिका त्याग करता है। इनके सिवाय यदि अन्य कर्म करता हो तो बताओ ? उसके समस्त कार्य इन्हीं पांच कर्मोंमे अन्तर्गत हो जाते हैं। आचार्य महाराजने पाच समितियोंके द्वारा इन पांचों कार्यों पर पहरा बैठा दिया फिर अनीतिमे प्रवृत्ति हो तो कैसे हो ?
:१०: आत्माका उपयोग आत्मामे स्थिर नहीं रहता इसका कारण परिग्रह है। परिग्रहके कारण ही उपयोगमे सदा चञ्चलता आती रहती है। आकिञ्चन्य धर्ममे परिग्रहका त्याग होनेसे आत्माका उपयोग अन्यत्र न जाकर ब्रह्म अर्थात् आत्मामे ही लीन होने लगता है । यथार्थमे यही ब्रह्मचर्य है। बाह्य ज्ञयसे उपयोग हटकर आत्मस्वरूपमे ही लीन हो जाय तो इससे बढ़कर धर्म क्या होगा ? इसीलिये ब्रह्मचर्यको सबसे बड़ा धर्म माना है। ब्रह्मचर्यकी पूर्णता चौदहवें गुणस्थानमे होती है। आगममे वहाँ ही शीलके अठारह हजार भेदोकी पूर्णता बतलाई है। यद्यपि निश्चय नयसे ब्रह्मचर्यका यही स्वरूप है तथापि व्यवहारसे स्त्रीत्यागको ब्रह्मचर्य कहते हैं। स्वकीय तथा परकीय दोनों प्रकारकी स्त्रियोंका त्याग हो जाना पूर्ण ब्रह्मचर्य है और परकीय स्त्रीका त्यागकर स्वकीय स्त्रीमे संतोष रखना अथवा स्त्रीकी अपेक्षा स्वपुरुषमे संतोष रखना एकदेश ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्यसे ही मनुप्यकी शोभा तथा प्रतिष्ठा है। चिरकालसे मनुष्योमें जो कौटुम्बिक व्यवस्था चली आ रही है उसका कारण मनुष्यका