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मेरी जीवन गाथा
श्रमका हो जाता तो उत्तम था । परन्तु कहा किससे जाये ? कुछ लोग फुटकर चन्दा करनेके लिये निकले तो दो चार हजारसे अधिक के वचन न मिलें । सागरमें सिंघई कुन्दनलालजी एक सहृदय तथा आवश्यकताका अनुभव करनेवाले व्यक्ति हैं । उन्होंने पिछले समयमे महिलाश्रमको ११०००) ग्यारह हजार नकद दा दिये थे । उन्होंने कहा कि यदि महिलाश्रमकी कमेटी ग्यारह हजार रुपये हमारे पहले के मिला दे तो मैं ग्यारह हजार और देता हूँ । इन वाईस हजारसे उक्त मकान खरीद लिया जावे । 'भूखेको क्या चाहिये ? दो रोटियाँ' वाली कहावत के अनुसार महिलाश्रमकी कमेटी ने उक्त बात स्वीकार कर ली जिससे २२०००) हजारमे उक्त मकान खरीद कर सिंघेन दुर्गावाईके नामसे महिलाश्रमको सौंप दिया गया । ग्रीष्मावकाश के बाद जब आश्रम खुला तब वह अपने निज के मकानमे पहुँच गया । इस मकानमे इतनी पुष्कल जगह है कि यदि व्यवस्थित रीतिसे बनाई जावे तो ५०० छात्राएं सानन्द अध्ययन कर सकती हैं ।
ज्येष्ठ शुक्ला पञ्चमीको गौराबाई जैन मन्दिर कटरामे श्रुनपची का उत्सव था । भीड़ बहुत थी। पं० पन्नालालजीने शाख प्रवचन द्वारा पर्वका पूर्ण परिचय जनताको करा दिया और उस बार बल दिया कि मन्दिरोंमे जो चांदी आदिके व्यर्थ उपकरण हैं इ गलाकर शास्त्र भण्डारोंकी पूर्णता होनी चाहिये तथा जो शा द्यावधि प्रकाश नहीं आये उनका जनताके समक्ष थाना बहुत आवश्यक है । बात मार्मिक थी, परन्तु यह हो नवन जब जनताके नेत्र खुलें। आजकल तो मन्दिरोंग न्य पत्थर या चीना इंटोंक जडवानेमे जाता है। लोगों के हृदय समाया हुआ है । शात्रज्ञानकी ओर उनकी रुचि नहीं । कटरामें एक मन्दिर कारे भायजीका था जो