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मथुरामें जैन संघका अधिवेशन
२७ साहब इन्दौरवाले थे। समारोहके साथ आपका स्वागत किया गया। आप अत्यन्त पुण्यशाली जीव हैं। धर्मके रक्षक तथा स्वयं धर्मात्मा है । जव कोई आपत्ति धर्म पर आती है तब आप उसे सब प्रकारसे निवारण करनेका प्रयत्न करते हैं। आपने सभापतिका भाषण देते हुए कहा है कि वर्तमानमे जैनधर्मका विकास करना इष्ट है तो सर्व प्रथम आत्मविश्वास करो तथा संयम गुणका विकास करो, उदार हृदय बनो, परकी निन्दा तथा आत्मप्रशंसा त्यागो, केवल गल्पवादमे समय न खोओ। भाषण देते हुए आपने कहा कि इस समय हम सबको परस्पर मनोमालिन्यका त्याग कर सौजन्यभावसे धर्मकी प्रभावना करना चाहिये। केवल व्याख्यानोंसे कल्याण न होगा, जो बात व्याख्यानोंमे आती है उसे कर्तव्यपथमे आना चाहिये
बात कहन भू पग धरन करण खडग पद धार । __करनी कर कथनी करें ते विरले संसार ||
अर्थात् वातका कहना कोई कठिन नहीं जो कहा जावे उसे कर्तव्यमे लाना चाहिये। आज हर एक वक्ता होनेकी चेष्टा करता है-प्रत्येक मानव उपदेष्टा बनना चाहता है, श्रोता व शिष्य कोई नहीं बनना चाहता । अस्तु, कालका प्रभाव है, हमको जो कहना था कह दिया। जैनसंघकी रक्षाके लिये आपने २५०००) पच्चीस हजारका दान किया । उपस्थित जनताने भी यथाशक्ति दान दिया। इसी अवसर पर विद्वत्परिषद्की कार्यकारिणीकी बैठक भी थी जिसमे पं० फूलचन्द्रजी बनारस, पं० कैलाशचन्द्रजी वनारस, पं० दयाचन्द्रजी, पं० पन्नालालजी सागर, पं० वाबूलालजी इन्दौर, पं० खुशहालचन्द्र जी बनारस, बंशीधरजी वीना, प० नेमीचन्द्रजी आरा, पं० जगन्मोहनलालजी कटनी आदि अनेक विद्वान् पधारे थे। वैठकमे विचारणीय विषय थे मानवमात्रको दर्शनाधिकार,