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मेरी जीवन गाथा जल अतिशय मधुर है। मन्दिरके चारों ओर रमणीय अटवी है। उत्तरकी ओर पवा ग्राम है जहाँ ७ घर जैनियोंके हैं। यह स्थान यदि श्रावक घरसे उदासीन हो, परिग्रह की मूर्छा न हो और स्वतन्त्र भोजन बना सकता हो तो रह कर धर्मसाधन करनेके योग्य है। विद्याध्ययनके उपयुक्त भी है परन्तु वर्तमान जैन जनताकी इस ओर दृष्टि नहीं । दृष्ठि जाती भी है तो लौकिक शिक्षाकी ओर ही जाती है, उसका कारण लौकिक शिक्षामे अर्थ प्राप्तिका विशेप सम्बन्ध है किन्तु जिस शिक्षासे पारमार्थिक हित होता है उस ओर ध्यान नहीं और न हो भी सकता है। प्रत्यक्ष सुखके साधन धनकी प्राप्ति जिसमे हो उसे छोड़ लोग अन्य साधनामे अपनेको नहीं लगाना चाहते। इसका कारण अनादि कालसे आहार, भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञाके जालमे इतने उलझे हैं कि उससे निकलना कफमें उलझी मक्खीके सहश कठिन है। जिसका महाभाग्य हो वही इस जालसे अपनी रक्षा कर सकता है। यह जाल अन्य द्वारा नहीं बनाया गया है किन्तु हमने स्वयं इसका सृजन किया है।
प्रातःकाल प्रवचन हुआ। २५ मनुष्य थे। इस पवा क्षेत्र पर उपयोग निर्मल रहता है। दूसरे दिन यहांसे प्रातःकाल ५३ बजे चल कर पुनः कड़ेसरा आगये और अपरान्ह समय यहांसे ४ मील चल कर तालबेहट आगये तथा मन्दिरकी धर्मशालामें ठहर गये । प्रातःकाल मन्दिरजीमे जिनदेवका दर्शन किया। स्वच्छ स्थान था। चित्त प्रसन्न हुआ। यहाँ पर खेतसिंहजी मिठया बहुत सज्जन हैं, धनी भी है तथा पुत्रादिसे संपन्न हैं। यहाँ एक रामस्वरूप योगी सस्कृतके अच्छे विद्वान हैं, साहित्यके प्राचार्य हैं। आप योगी हैं अतः ब्राह्मण लोग उनसे यह प्रेम नहीं रखतं जा