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इटावा में चातुर्मासका निश्चय
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यह बात रक्खी जिससे समाजको अत्यन्त प्रसन्नता हुई । सबने यह निश्चय किया कि दीपावलीके बाद इस उत्सवका आयोजन किया जावे | पं० पन्नालालजी बहुत ही श्रद्धालु और कर्मठ जीव हैं। आपकी लोगोंने योग्यता नहीं जानी ।
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लोगोंकी यह दृष्टि बन गई है कि वणजीने हमारा उपकार किया है इसलिये हमे इनके प्रति कृतज्ञताका भाव प्रकट करना चाहिये । परन्तु यथार्थ बात यह है कि संसारमें सर्व मनुष्य अपने अपने गीत गाते हैं, कोई किसीका उपकारी नहीं । केवल आत्मामें जो कपाय उत्पन्न होती है उसे दूर करनेका प्रयास करते हैं कपायसे आत्मा एक प्रकारकी बेचैनी हो जाती है वह बेचैनी ही कार्यमे प्रवृत्ति कराती है। जैसे जिस समय हमको क्रोध उत्पन्न होता है उस समय परका अनिष्ट करनेकी इच्छा होती है । उससे हमको कुछ लाभ नहीं परन्तु वह इच्छा जब तक है तब तक बेचैनीसे विकलता होती है । जब परका अनिष्ट हो गया तब वह विकलता मिट जाती है । हमारी श्रद्धा तो यह है कि क्रोधकपायका कार्य ही इसका कारण है । वास्तवमें जो विकलता थी वह क्रोधकषायसे थी, कार्य होनेसे हमारा क्रोध मिट गया । विचार कर देखो -- न हम क्रोध करते न विकलता होती अतः क्रोधको न होने देना ही हमारा पुरुषार्थ है । इसका अर्थ यही है कि क्रोध होने पर उसमे आसक्त न होना । यही आगामी क्रोध न होनेका उपाय है । क्रोध यह उपलक्षण है । मोह कर्मके उदयसे यावत् ( जितने ) भाव हों उन सबमें आसक्त न होना । कहाँ तक कहा जावे ? देखने जाननेमें जो पदार्थ उनके आनेकी रोक टोक नहीं हो सकती । उनमें रागादि नहीं करना यही संसार बन्धन से मुक्त होनेका अपूर्व मार्ग है— अद्वीतीय उपाय है । आत्मद्रव्यकी परिणति आत्मातिरिक्त पदार्थोंके सम्वन्धसे ही कलुषित हो जाती है । कलुषितका अर्थ