________________
मेरी जीवन गाथा जाता है। वास्तवमें इसका संरक्षक मोह है। उसके दो मंत्री हैं एक राग और दूसरा द्वेष । उनके द्वारा आत्मामें क्रोध मान माया और लोभका प्रकोप होता है। क्रोधादिकोंके आवेगमें यह जीव नाना प्रकारके अनर्थ करता है। जब क्रोधका आवेग आता है तब परको नानाप्रकारके कष्ट देता है, स्वयं अनिष्ट करता है तथा परसे भी कराता है अथवा उसका स्वयं अनिष्ट होता हो तो हर्पका अनुभव करता है। यद्यपि परके अनिष्टसे इसका कुछ भी लाभ नहीं पर क्या करे ? लाचार है। यदि परका पुण्योदय हो और उसके अभिप्रायके अनुकूल उसका कुछ भी वांका न हो तो यह दाहमे दुःखी होता रहता है। यहाँतक देखा गया है कि अभिप्रायके अनुकूल कार्य न होने पर मरण तक कर लेता है। मानके उदयमें यह इच्छा होती है कि पर मेरी प्रतिष्ठा करे, मुझे उच्च माने। अपनी प्रतिष्ठाके लिए यह दूसरेके विद्यमान गुणीको आच्छादित करता है और अपने अविद्यमान गुणोंको प्रगट करता है। परकी निन्दा और अपनी प्रशंसा करता है। मानके लिए बहुत कष्टसे उपार्जन किये हुये धनको व्यय करनेमे संकोच नहीं करता । यदि मानकी रक्षा नहीं हुई तो वहुत दुःखी होता है । अपघात तक कर लेने में संकोच नहीं करता। यदि कोईने जैसी आपने इच्छा की थी वैसा हो मान लिया तो फूलकर कुप्पा होजाता है। कहता है हमारा मान रह गया। पर मूर्ख यह विचार नहीं करता कि हमारा मान नष्ट होगया । यदि नष्ट न होता तो वह भाव सर्वदा बना रहता । उसके जानेसे ही तो आनन्द आया परन्तु विपरीत श्रद्धामें यह मानता है कि मानकी रक्षासे आनन्द आगया। __एवं माया कषाय भी जीवको इतने प्रपञ्चोंमें फंसा देती है कि मनमे तो और है, बचनसे कुछ कहता है और कायके द्वारा अन्य ही करता है । मायाचारी आदमीके द्वारा महान महान अनर्थ होत