________________
४०८
मेरी जीवन गाथा पण्डितजी उसकी बात सुन कर कुछ हीला-हवाला करने लगे तो वह स्वयं उठ कर उनकी गोदमें जा बैठी और बोली कि अब तो आप मेरे पिता तुल्य हैं और मैं आपकी वेटी हूँ। पण्डितजी गद्गद् स्वरसे बोले-बेटी । तूंने तो आज वह काम कर दिया जिसे मैं जीवन भर अनेक शास्त्र पढ़कर भी नहीं कर पाया । उस समयसे दोनों ब्रह्मचर्यसे रहने लगे। यदि किसीकी लड़की या वध विधवा हो जाती है तो लोग यह कह कर उसे रुलाते हैं कि हाय ! तेरी जिन्दगी कैसे कटेगी ? पर यह नहीं कहते कि बेटी! तूं अनन्त पापसे बच गई, तेरा जीवन वन्धन मुक्त हो गया । अव तूं आत्महित स्वतन्त्रतासे कर सकती है। - प्रथमानुयोगमे एक कथा आती है-किसी आदमीसे पानी छाननेके बाद जो जीवानी होती है वह लुढ़क गई। उसने मुनिराज से इसका प्रायश्चित्त पूछा तो उन्होंने कहा कि असिधारा व्रत धारण करनेवाले स्त्री-पुरुषको भोजन कराओ। महाराज | इसकी परीक्षा कैसे होगी १ ... ऐसा उसने पूछा तो मुनिराजने कहा कि जब तेरे घरमें ऐसे स्त्री-पुरुष भोजन कर जावेंगे तब तेरे घरका मलिन चंदेवा सफेद हो जावेगा। मुनिराजके कहे अनुसार वह स्त्री-पुरुषोंको भोजन कराने लगा। एक दिन उसने एक स्त्री तथा पुरुपको भोजन कराया और देखा कि उनके भोजन करते करते मैला चंदेवा सफेद हो गया है। आदमीको विश्वास हो गया कि ये ही प्रसिधारा व्रतके धारक हैं। भोजनके बाद उसने उनसे पूछा तो उन्होंने परिचय दिया कि जब हम दोनोंका विवाह नहीं हुआ था, उसके पहले हमने शुक्ल पक्षमे और इसने कृष्ण पक्षमे ब्रह्मचर्य रखनेका नियम ले रक्खा था । अनजानमे हम दोनोंका विवाह हो गया। शुक्लपक्षके वाद कृष्णपक्षमें जब हमने उसके प्रति कामेच्छा प्रकट की तो उसने उत्तर दिया कि मेरे तो कृष्णपनमें