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मथुरामें जैन संघका अधिवेशन
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__. परन्तु अन्तरंगसे सेवन नहीं करना चाहता। अनादि कालीन : संस्कारके विद्यमान रहते इसे विना चाहके भी काम करना पड़ता
है। आहार, भय, मैथुन और परिग्रह ये चार संज्ञाएँ अनादि कालसे जीवके लग रहीं हैं ? क्योंकि अनादि कालसे मिथ्यात्वका सम्बन्ध है इसीसे यह जीव परको अपना मान रहा है । इसी माननेके कारण शरीरको भी जो स्पष्ट पर द्रव्य है निज मानता है। जब उसे निज मान लिया तब उसकी रक्षाके अनुकूल भोजन ग्रहण करता है तथा जो प्रतिकूल हैं उन्हे त्यागता है। नाशके कारण आ जायें तो उनसे पलायमान होनेकी इच्छा करता है। जब वेदका उदय आता है तव स्त्री पुरुप परस्पर विषय सेवनकी इच्छा करते हैं तथा मोहके उदयमे पर पदार्थों को ग्रहण करनेकी इच्छा होती है। इस तरह अनादिसे यह चर्खा चल रहा है। जिस समय दैवात् संसार तट समीप आ जाता है उस समय अनायास इस जीवके इतने निर्मल परिणाम होते हैं कि अपनेको परसे भिन्न माननेका अवसर स्वयमेव प्राप्त हो जाता है। जहाँ आपसे भिन्न परको माना वहाँ संसार का बन्धन स्वयमेव शिथिल हो जाता है । संसारके मूल कारणके जाने पर शेष कर्म स्वयमेव पृथक् हो जाते हैं। जैसे दश गुणस्थान तक ज्ञानावरणादि पद कोका बन्ध होता है । वन्धमें कारण सूक्ष्म लोभ है, बँधनेवाले कर्मोंकी स्थिति अन्तर्मुहूत ही पड़ती है परन्तु जब दश गुणस्थानके अन्तमें मोहका सर्वथा नाश हो जाता है तव वारहवें गुणस्थानके उपान्त्य समयमें निद्रा प्रचला और अन्तमें ज्ञानावरणकी ५, अन्तरायकी ५ और दर्शनावरणकी ४ प्रकृतियाँ नाशको प्राप्त हो आत्माको केवलज्ञानका पात्र बना देती हैं। यही प्रक्रिया सर्वत्र है-करणलब्धिके परिणाम होने पर जव सम्यग्दर्शन आत्मामे उत्पन्न हो जाता है तब अनायास ही मिथ्यात्व आदि सोलह प्राकृतियोंका बन्ध नहीं होता। शेष प्रकृतियोंका जो