________________
२५४
मेरी जीवन गाथा
न तीर्थमे शान्ति अशान्ति है और न सत्समागममे शान्ति - अशान्ति है । वह तो आत्मा है । वहाँ हम खोजते नहीं, उसके प्रतिबन्धक कारणोको हटाते नहीं, केवल निमित्त कारणोंको प्रथक करने की चेष्टा करते हैं । उसके प्रतिबन्धक कारण क्रोधादिक कषाय हैं । हम उनको तो हटाते नहीं किन्तु जिन निमित्तोंसे क्रोधादिक होते हैं उन्हें दूर करनेका प्रयत्न करते हैं । एक दिन गुदरीके मन्दिर मे भी प्रवचन हुआ ।
चैत्र कृष्ण अमावस्या सं० २००७ के दिन प्रातः झाँसीसे ३ मील चलकर श्री परशुरामजीके वागमे ठहर गये । स्थान रम्य था परन्तु ठहरनेके योग्य स्थान था । दहलान मे भोजन हुआ, मक्खियाँ बहुत थीं । भोजन निरन्तराय हुआ । ४ आदमी उनके उड़ाने में संलग्न रहे । यहीं पर श्री फिरोजीलालजी दिल्लीसे आ गये। आप बहुत ही सरल और सज्जन प्रकृतिके हैं। आप गरमी के मौसमका चहर लाये । प्रायः आप निरन्तर आया करते हैं । जबसे मैंने दिल्ली से प्रस्थान किया तबसे १० स्थानोपर आये और हर स्थान पर आहार दान दिया। आपके कुटुम्बका बहुत ही उदार भाव है । राजकृष्णजीसे आपका घनिष्ठ सम्बन्ध है । राजकृष्णकी धर्मपत्नी आपकी भगिनी है । वह तो साक्षात् देवी हैं । आपके यहाँ जो पहुँच जाता है उसका आप बहुत ही आतिथ्य सत्कार करते हैं । फिरोजीलालजी झाँसी चले गये और हम वागसे २ मील चलकर परशुरामके बंगला पर ठहर गये । स्थान रम्य था । १ छोटी कुईया वा १ नाला है । चारों तरफ करोंदाका वन है । यहाँ पर धर्मध्यानकी योग्यता है परन्तु कोई रहना नहीं चाहता । आजकल धर्मका मर्म दम्भ रह गया है इसीलिये दम्भी पूजे जाते हैं ।
चैत्र शुक्ल १ विक्रम. सं० २००८ का प्रथम दिन था । आज 'प्रातः परशुरामके वंगलासे ३ मील चलकर वेत्रवती नदीको छोटी