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पर्व प्रवचनावली
३७१ कंवल परमाणुओंकी नहीं किन्तु स्कन्ध पर्यायापन्न परमाणुओंकी हैं। इसी तरह जो रागादि पर्याय हैं वह उदयावस्थापन्न कर्मों के सद्भाव मे ही जीवके होती हैं। यदि ऐसा न माना जावे तो रागादि परिणाम जोवका पारिणामिक भाव हो जावेगा और ऐसा होनेसे संसारका अभाव हो जावेगा जो कि किसीको इष्ट नहीं। रागादिक भावोका प्रत्यक्षमें सद्भाव देखा जाता है। इससे यही तत्त्व निर्गत होता है कि रागादि भाव औपाधिक हैं। जैसे स्फटिकमणि स्वच्छ है किन्तु जब स्फटिकमणिके साथ जपापुष्पका सम्बन्ध होता है तब उसमें लालिमा प्रतीत होती है। यद्यपि स्फटिकमणि स्वयं रक्त नहीं किन्तु निमित्तको पाकर रक्तिमामय प्रत्ययका विषय होता है। इससे यह समझमे आता है कि स्फटिकमणि निमित्तको पाकर लाल जान पड़ती है। यह लालिमा सर्वथा असत्य नहीं। ऐसा सिद्धान्त है कि जो द्रव्य जिस कालमे जिस रूप परिणमती है वह उस कालमें तन्मय हो जाती है। श्री कुन्दकुन्दस्वामीने स्वयं प्रवचनसारमें लिखा है
परिणमदि जेण दव्वं तक्कालं तम्मय त्ति पण्णत्तं ।
तम्हा धम्मपरिणादो श्रादा धम्मो मुणेदव्वो ॥ इस सिद्धान्तसे यह निष्कर्ष निकला कि आत्मा जिस समय रागादिरूप परिणमेगा उस समय नियमसे उसी रूप होगा तथा पर्याय दृष्टिसे उन्हीं रागादिकका उस कालमें अस्तित्व रहेगा। जो भाव करेगा उसीका वर्तमानमे अनुभव होगा । जल शीत है परन्तु अग्निके सम्बन्धसे उष्ण पर्यायको प्राप्त करता है।
यद्यपि उसमें शक्ति अपेक्षा शीत होनेकी योग्यता है तथापि वर्तमानमें शीत नहीं। यदि कोई उसे शीत मानकर पान करे तो दग्ध ही होगा। इसी प्रकार आत्मा यदि वर्तमानमें रागरूप है तो