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मेरी जीवन गाथा रागी ही है । इस अवस्थामे वीतरागका अनुभव होना असंभव हैइस कालमे आत्माको रागादि रहित मानना मिथ्या है । यद्यपि रागादि परिणाम परनिमित्तक हैं अतएव औपाधिक हैं-नशनशील हैं तथापि वर्तमानमे तो औष्ण्य परिणत अयःपिण्डवत् आत्मा तन्मय हो रहा है, अर्थात् उन परिणामों के साथ आत्माका तादात्म्य हो रहा है। इसीका नाम अनित्य तादात्म्य है । यह अलीक कथन नहीं। एक मनुष्यने मद्यपान किया और उसके नशासे वह उन्मत्त होगया। हम पूछते हैं कि क्या वह वर्तमानमे उन्मत्त नहीं है ? अवश्य उन्मत्त है किन्तु किसीसे आप प्रश्न करें कि मनुष्यका क्या लक्षण है ? इसके उत्तरमें उत्तर देनेवाला क्या यह कह सकता है कि उन्मत्तता मनुष्यका लक्षण है ? नहीं, यह उत्तर ठीक नहीं क्योंकि मनुप्यकी सर्व अवस्थाओंमें उन्मत्तताकी व्याप्ति नहीं। इसी तरह आत्मामें रागादिभाव होनेपर भी आत्माका लक्षण रागादि नहीं हो सकता क्योकि आत्माकी अनेक अवस्थाओंमें रागादिभाव व्यापकरूपसे नहीं रहता अतः यह आत्माका लक्षण नहीं हो सकता। लक्षण वह होता है जो सर्व अवस्थाओंमें पाया जाये । ऐसा लक्षण चेतना ही है। यद्यपि रागादि परिणाम तथा केवलज्ञानादि भी आत्मामे ही होते हैं तथापि उन्हें लक्षण नहीं माना जाता क्योंकि वे जीवकी पर्यायविशेष हैं, व्यापक रूपसे नहीं रहतीं। अन्ततो गत्वा चेतना ही आत्माका एक ऐसा गुण है जो आत्माकी सर्व दशाओंमें व्यापकरूपसे रहता है। आत्माकी २ अवस्थाएँ हैंसंसारी और मुक्त। इन दोनोंमे चेतना रहता है। उसीसे अमृत चन्द्र स्वामीने लिखा है कि
अनाद्यमनन्तमचलं स्वसवेद्यमिह स्फुटम् ।
जीवः स्वयं तु चैतन्यमुच्चैश्चकचकायते ॥ जीव नामक जो पदार्थ है वह स्वयंसिद्ध है तथा परनिरपेक्ष