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मेरी जीवन गाथा एक कविके सामने पूर्तिके लिये समस्या रखी गई-दिया व्यर्थ नहि जात' जिसकी उसने उक्त प्रकार पूर्ति की। कितना सुन्दर भाव इसके अन्दर भर दिया है । वसन्त ऋतुमें प्रथम पतझड़ आती है जिससे समस्त वृक्षोंके पुराने पत्ते झड़ जाते हैं और उसके बाद उन वृक्षोंमे नये लहलहाते पल्लव उत्पन्न होते हैं। कविने यही भाव इसमे अंकित किया है कि जब वसन्त ऋतु याचक हुआ अर्थात् उसने वृक्षोंसे पत्तोंकी याचना की तव सव वृक्षोंने उसे अपने अपने पत्ते दे दिये। उसीके फलस्वरूप उन्हे नये नये पल्लवॉकी प्राप्ति होती है क्योंकि दिया दान कभी व्यर्थ नहीं जाता है । मान बड़ाईके लिए जो दान दिया जाता है वह व्यर्थ जाता है। इसके लिए महाभारतमे एक उपकथा अाती है
युद्धमें विजयोपरान्त युधिष्टिर महाराजने एक बड़ा भारी यन किया। उसमे हजारो ब्राह्मणोंको भोजन कराया गया। जिस स्थान पर ब्राह्मणोंको भोजन कराया गया उस स्थानपर युधिष्ठिर महाराज खड़े हुए कुछ लोगोंसे वार्ता कर रहे थे। वहीं एक नेवला जूठनमें वार वार लोट रहा था। महाराजने नेवलासे कहा-यह क्या कर रहा है ? तव नेवलाने कहा-महाराज ! एक गाँवमें एक वृद्ध ब्राह्मण रहता था। उसकी स्त्री थी, एक लड़का था और लड़केकी स्त्री थी। इस तरह चार आदमियोंकी उसकी गृहस्थी थी। बेचारे बहुत गरीव थे। खेतों परसे शिला बीनकर लाते और उससे अपनी गुजर करते थे। एक बार ३ दिनके अन्तरसे उन्हे भोजन प्राप्त हुआ। शिला बीनकर जो अनाज उन्हें मिला उससे वे आठ रोटियाँ वनाकर तथा दो दो रोटियाँ अपने हिस्सेकी लेकर खाने बैठे। बैठे ही थे कि इतनेमे एक गरीब आदमी चिल्लाता हुआ आया कि सात दिनसे मुखमें अनाजका दाना भी नहीं गया, भूखके मारे प्राण निकले जा रहे हैं। उसकी दीन वाणी सुन ब्राह्मणको दया आगई