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पर्व प्रवचनावली कहनेका तात्पर्य यही है कि त्यागसे ही संसारको सब काम चलते हैं।
पानी बाड़े नावमें घरमें बाढे दाम ।
दोनों हाथ उलीचिये यही सयाना काम || यदि नावमे पानी बढ़ रहा है तो दोनों हाथोंसे उलीचकर उसे बाहिर करना ही बुद्धिमता है। इसी प्रकार यदि घरमें सम्पत्ति बढ़ रही है तो उसे दानके द्वारा उत्तम कायमें खर्च करना ही उसकी रक्षाका उपाय है। दान सन्मानके साथ देना चाहिये और उसके बदले किसी प्रकारका अभिमान हृदयमे उत्पन्न नहीं होना चाहिये, अन्यथा पैसाका पैसा जाता है और उससे आत्माका लाभ भी कुछ नहीं होता । दानमे लोभ कषायसे निवृत्ति होनेके कारण दाताकी आत्माको लाभ होता है। यदि लोभके बदले उसके दादा मानका उदय आत्मामे हो गया तो इससे क्या लाभ कहलाया। उत्तम पात्रके लिये दिया हुआ दान कभी व्यर्थ नहीं जाता। धन्यकुमारकी कथा
आप लोग जानते हैं। घरसे निकलनेपर उसे जो स्थान-स्थानपर अनायास ही लाभ हुआ था वह उसके पूर्व पर्यायमे दिये दानका ही फल था । समन्तभद्र स्वामीने लिखा है
क्षितिगतमिव वटबीज पात्रगतं दानमल्पमपि काले । __ फलति च्छायाविभवं बहुफलमिष्ट शरीरभृताम् ।।
अर्थात् जिस प्रकार योग्य भूमिमे पड़ा हुआ वटका छोटा सा बीज कालान्तरमें वड़ा वृक्ष बनकर छायाके विभवको प्रदान करता है उसी प्रकार योग्य पात्रके लिये दिया हुआ छोटा सा दान भी समय पाकर अपरिमित वैभवको प्रदान करता है ।
जब वसन्त याचक भये दीने तरु मिल पात । इससे नव पल्लव भये दिया व्यर्थ नहिं जात ॥