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मेरी जीवन गाथा
अनुकूल लगाता है और कुछ यथार्थ भी लगाता है तथा उनको रखनेकी चेष्टा करता है। समागममें अनिष्ट-इष्ट कल्पना मत करो । इष्टानिष्ट कल्पना अन्तरहसे होती है अतः यदि समागमको नहीं चाहते हो तो अन्तरङ्ग कल्पना त्याग दो। परको इष्ट अनिष्ट मानने की बात छोड़ो। दोष आपमें देखो तभी सुमार्ग मिलेगा।
पौष कृष्ण ८ सं० २००७ सोमवारको ईसवीय नवीन वर्षका प्रारम्भ हुआ। आज दैनंदिनीके प्रथम पृष्ठ पर लिखा कि 'यदि कश्चित् आत्मा संसारसमुद्राद्धर्तुमिच्छति तदास्मिन् यावन्तः पदार्थाः सन्ति तैः सह संसर्गों न कार्य' अर्थात् यदि कार्य आत्मा संसार ससुद्रसे उद्धार पानेकी इच्छा करता है तो इसमें जितने पदार्थ हैं उनके साथ संपर्क नहीं करना चाहिये। मनमें विचार आया कि इस वर्षमें यदि शान्तिकी अभिलाषा है तो इन नियमोंका पालन करो
प्रातःकाल ३३ बजे उठो और १३ घंटा स्वाध्यायमे बिताओ। तदनन्तर सामायिक करो । स्वाध्यायमे पुस्तकोंकी मर्यादा रक्खोसमयसार, प्रवचनसार, पश्चास्तिकाय, नियमसार और पुरुषार्थसिद्धयुपाय""इन पुस्तकोंको णमोकार मन्त्र बनाओ। रात्रिम घंटा चोलो, शास्त्रश्रवण करो। प्रात:काल स्वाध्यायके समय किसी से मत बोलो। यदि बोलो तो जिसका स्वाध्याय कर रहे हो उसी पर बोलो। भोजनकी प्रक्रियाको सरल बनाओ। भृत्यका अभ्यास छोड़ो आत्मीय कार्यका भार परके ऊपर मत डालो। त्यागका अर्थ यह नहीं जो अन्य समाजको भारभूत बनो। सूत्रमें स्वामीने 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' लिखा है तदनुकूल प्रवृत्ति करो। समाज भोजनादि द्वारा तुम्हारा उपकार करती है तो तुमको भी उचित ह कि यथायोग्य ज्ञानादि दान द्वारा उसका उपकार करो। याद