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मेरी जीवन गाथा जिससे लौटकर उसी वंगलामें आ गये । गयासे स्वगीय दानूमल्लजीकी धर्मपत्नी आदि ४ वियोंने आकर आहार कराया। पश्चात् २ वजे यहाँसे प्रस्थान कर वापिस गया पहुँच गये और चार मास वहीं रहनेका निश्चय कर लिया। गयाके लोग प्रसन्न हो गये परन्तु व्र० सोहनलाल तथा पं० शिखरचन्द्रजीको मनमें अत्यन्त खेद हुआ। श्यामलालजी तपस्वी भी खिन्न थे, अतः वे इसरी चले गये।
स्मृतिकी रेखायें यहाँ पं० राजकुमार जी शास्त्री पहलेसे ही विद्यमान थे तथा यथावसर अन्य विद्वान् भी पधारते रहते थे इसलिये लोगोंको प्रवचनका अच्छा लाभ मिलता रहता था। श्रावण कृष्णा १० को प्रातःकाल ५ वजे विनोवा जी भावे आये, १५ मिनट ठहरे। आप बहुत ही शान्त स्वभावके हैं। आपका भाव अत्यन्त निर्मल है। सवेप्राणी सुखके पात्र हैं। तथा कोई दुःखका अनुभव न करे यह मंत्री भावना आपमे पाई जाती है। 'दुःखानुत्पत्त्यभिलापी मैत्री' यही तो मैत्रीका लक्षण है। देहातोंमें गरीब जनता खेती योग्य भूमिसे रहित न रहे इस भावनासे प्रेरित होकर आप परिकरके साथ भ्रमण करते हैं और सम्पन्न मनुष्योंसे भूमि माँगकर गरीबोंके लिय वितरण करते हैं। उत्तम कार्य है। यदि जनतामे ऐसी उदारता
आ जावे कि हम आवश्यकतासे अधिक भूमिके स्वामी न बनें तथा वह अतिरिक्त भूमि भूमिहीन मनुप्याके लिये दे दें तो देशा कल्याण अनायास हो जावे।
श्रावण शुक्ला सं० २०१० को श्री साहु शान्तिप्रमाद जी बारे। १ घण्टा मन्दिर में रहे। गयावालोंने उन्हें पोर उन्होंन ।