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कटनी
४२३ किया है, एकान्तवाद द्वारा जो उसकी बाधक युक्तियाँ हैं उनको निरस्त करनेमें समर्थ युक्तियोंकी पूर्णता प्राप्त की है, परापर गुरुओंका उपदेश भी मुझे प्राप्त है तथा वैसा अनुभव भी है । इतने पर भी यदि अच्छा न जॅचे तो अनुभवसे परीक्षा कर पदार्थका निर्णय करना, छल ग्रहण कर अमार्गका अवलम्बन मत करना।
अव स्वयं स्वामी उस केवल आत्माको कहते हैं जो न तो अप्रमत्त है और न प्रमत्त है, केवल ज्ञायकभाववाला है, उसीको शुद्ध कहते हैं, वही ज्ञाता है अर्थात् आत्माकी कोई अवस्था हो वह जायकभावसे शून्य नहीं होती। जैसे मनुप्यकी वाल्यादि अनेक अवस्थाएँ होती हैं परन्तु वे जायकभावसे शून्य नहीं होती। यही कारण है कि आत्माका लक्षण अन्यत्र चेतना कहा है। कर्तृ कर्माधिकारमे आत्मामे कर्तृत्व तथा कर्मत्व हो सकता है या नहीं ? इस पर विचार किया है । यह विचार २ दृष्टियोंसे हो सकता है- एक तो शुद्ध दृष्टिसे और दूसरा अशुद्ध दृष्टि से । कर्ता किसे कहते हैं ? जो परिणमन करता है वह कर्ता है और कर्म उसे कहते हैं जो परिणमन होता है वह कर्म है। कर्तृ-कर्माधिकारमे जो दिखाया है वह निमित्तकी गौणता कर दिखाया है। उसे लोक सर्वथा मान लेते हैं यही परस्पर विवादका स्थल बन जाता है।
अमृतचन्द्र स्वामीने मङ्गलाचरणमे लिखा है कि मैं एक कर्ता हूँ और ये जो क्रोधादिक भाव हैं ये मेरे कर्म हैं ऐसी अजानी जीवोंकी अनादि कालसे कर्ता-कर्मकी प्रवृत्ति चली आती है परन्तु जब सब द्रव्योंको भिन्न भिन्न दर्शानेवाली ज्ञानज्योति उदयको प्राप्त होती है तब यह सव नाटक शान्त हो जाता है। इससे यह निश्चय हुआ कि यह नाटक, जब तक इसकी विरोधी ज्ञानज्योति उदित नहीं हुई तब तक सत्य है । आपकी इच्छा चाहे इसे व्यवहार कहो या अशुद्ध दशा कहो।