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मेरी जीवन गाथा
आया है। मै अनुभव में भी
नहीं है, अर्थात् संसार पर्याय है | श्रुतकेवलीने जैसा कहा इससे यह द्योतित होता है कि परम्परासे यह उपदेश चला वैसा ही कहूँगा इससे यह ध्वनि निकलती है कि मेरे या गया है । निरूपण करनेका यह प्रयोजन है कि अनादिकाल से जो स्वपरमें मोह है उसका नाश हो जावे । इस कथनसे यह ध्वनि निकलती है कि स्वामीके धर्मानुराग हैं और यही धर्मानुराग उपचार से शुद्धोपयोगका कारण भी कहा जाता है । स्वामीने प्रतिज्ञा की कि मैं समयप्राभृत कहूँगा । यहाँ आशङ्का होती है कि समय क्या पदार्थ है ? इस आशङ्काका स्वयं स्वामी उत्तर देते हैं कि जो समयग्दर्शन, ज्ञान तथा चारित्रमे स्थित है। उसे स्वसमय और जो इससे भिन्न पुद्गल कर्मप्रदेशमें स्थित हैं उसे पर समय कहते हैं । यह दोनों जिसमें पाये जावें उसीका नाम जीव जानो चाहे समय जानो । इसके वाद स्वामीने द्वैविष्यको आपत्तिजनक वतलाया अर्थात् यह द्वैविध्य शोभनीक नहीं, एकत्व प्राप्त जो समय है वही सुन्दर है | जहाँ द्विधि हुआ वहाँ हो बन्ध है, संसार है । जैसे माँ के पुत्र पैदा होता है तो स्वतन्त्र होता है । जहाँ उसका विवाह हुआ - परको अपनाया - ब्रह्मचारीसे गृहस्थ हुआ वहाँ उसकी स्वतन्त्रताका हरण हो गया वह संसारी वन गया। उसी तरह आत्माने जहां परको अपनाया वहां उसका एकल चला गया। क्यों दुर्लभ हो गया ? इसका उत्तर यह है कि अनादिसे काम भोगकी कथा सुनी, वही परिचयमे आई और वही अनुभव में आई । श्रात्माका जो एकत्व था उसे कपायचक्र के साथ एकमेक होनेसे न तो सुना, न परिचय में लाया और न अनुभवमं लाया । उसपर श्री आचार्य लिखते हैं कि मैं उस आत्माके एकलका जो सर्वथा परसें भिन्न है अपने विभव के अनुसार निरूपण करूँगा। मेरा विभ यह है कि मैंने स्याद्वाद पद भूपित शब्द अच्छा श्रभ्यान