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मेरी जीवन गाथा सागरकी बहिन है । यहाँके मनुष्ये बहुत ही सज्जन हैं। १ खण्डेलवाल भाईके वागमें जो शहरसे आधा मील होगा ठहर गये । आपने सर्व प्रकारकी व्यवस्था कर दी, कोई कष्ट नहीं होने दिया । मन्दिरमे २ दिन प्रवचन हुआ, मनुष्य संख्ण अच्छी उपस्थित होती थी। प्रवचन सुन मनुष्य बहुत ही प्रसन्न हुए परन्तु वास्तवमें जो वात होना चाहिये वह नहीं हुई और न होनेकी आशा है, क्योंकि लोग ऊपरी आडम्बरमें प्रसन्न रहते हैं अन्तरङ्गकी दृष्टि पर ध्यान नहीं देते । केवल गल्पवादमे समय व्यय करना जानते हैं। १ धमशाला मन्दिरके पास वन रही है । मन्दिरके पास. वर्तन बनानेवाले बहुत रहते है। इससे प्रवचनमें अतिवाधा उपस्थित रहती है पर कोई उपाय इस विघ्नके दूर करनेका नहीं है। शामको मेरठवाले आये और मेरठ चलनेके लिये प्रार्थना करने लगे जिससे हापुड़वालोंमे और उनमे बहुत विवाद हुआ । हापुड़के मनुष्योंको मेरे जानेका बहुत खेद हुआ परन्तु प्रवास तो प्रवास ही है। प्रवाससे एक स्थान पर कैसे रहा जा सकता है। फलतः माघ सुदी १३ को हापुड़से मेरठकी ओर प्रस्थान कर दिया । यहाँ निम्नांकित भाव मनमे आया
'किसीकी मायामें न आना''यही बुद्धिमत्ता हैं । जो कहो उस पर दृढ़ रहो, व्यर्थ उपदेष्टा मत बनो, किसीसे रुष्ट तथा प्रसन्न मत होओ, किसी संस्थासे सम्बन्ध न रक्खो, अपने स्वरूपका अनु. भवन करो, परकी चिन्ता छोड़ो, कोई किसीका कुछ उपकार नहीं कर सक्ता ।'
- मेरठ हापुड़से ४ मील कैली आये, एक जमींदारके वरण्डामे ठहर गये. अति सज्जन था। सत्कारसे रक्या, दुग्धादि पान करानेकी