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पर्व प्रवचनावली
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परिग्रही कहलाता है और मूर्च्छाके अभाव मे समवसरणरूप विभूतिके रहते हुए भी अपरिग्रह - परिग्रह रहित कहलाता है । परिग्रह सबसे बड़ा पाप है, जो दशम गुणस्थान तक इस जीवका पिण्ड नहीं छोड़ता । आज परिग्रहके कारण संसारमे त्राहि त्राहि मच रही है । जहाँ देखो वहीं परिग्रहकी पुकार है । जिनके पास है वे उसे अपने पाससे अन्यत्र नहीं जाने देना चाहते और जिनके पास नहीं है वे उसे प्राप्त करना चाहते हैं इसीलिये संसारमे संघर्ष मचा हुआ है । यदि लोगों की दृष्टिमे उतनी बात आ जाय कि परिग्रह निर्वाहका साधन है । जिस प्रकार हमे भोजन, वस्त्र और निवासके लिए परिग्रहकी आवश्यकता है उसी प्रकार दूसरे के लिए भी इसकी आवश्यकता है अतः हमे आवश्यकतासे अधिक अपने पास नहीं रोकना चाहिये तो संसारका कल्याण हो जाय । यदि परिग्रहका कुछ भाग एक जगह अनावश्यक रुक जाता है तो दूसरी जगह उसके बिना कमी होनेसे संकट उत्पन्न हो जाता है । शरीर के अन्दर जबतक रक्तका संचार होता रहता है तबतक शरीरके प्रत्येक अंग अपने कार्य में दक्ष रहते हैं पर जहाँ कही रक्तका संचार रुक जाता है वहाँ वह अट्ड्स वेकार होजाता है और जहाँ रक्त रुक जाता है वहाँ मवाद पैदा हो जाता है । यही हाल परिग्रहका है । जहाँ यह नहीं पहुँचेगा वहाँ उसके विना संकटापन्न स्थिति हो जायगी और जहाँ रुक जायगा वहाँ मद-मोह विभ्रम आदि दुर्गुण उत्पन्न कर देगा । इसलिये जैनागममें यह कहा गया है कि गृहस्थ अपनी आवश्यकताओके अनुसार परिग्रहका परिमाण करे और मुनि सर्वथा ही उसका परित्याग करे
आजके युगमे मनुष्यकी प्रतिष्ठा पैसेसे आँकी जाने लगी है इसलिये मनुष्य न्यायसे अन्यायसे जैसे बनता है वैसे पैसेका संचय कर अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाना चाहता है । प्रतिष्ठा किसे बुरी लगती है ?