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________________ २२८ : मेरी जीवन गाथा द्रव्यके भाव हैं तथा पर द्रव्यके निमित्तसे आत्मामे जो भाव हो हैं उन सबको ज्ञानी जीव नहीं चाहता। इस पद्धतिसे जिसने सब अज्ञान भावोंका वमन कर दिया तथा सर्व पदार्थोंके आलम्बनके त्याग दिया केवल टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक भावका अनुभव करत है उसके बन्ध नहीं होता। योगके निमित्तसे यद्यपि बन्ध होता है पर वह स्थिति और अनुभागसे रहित होनेके कारण अकिंचित्कर है। जिस प्रकार चूना आदिके श्लेषके बिना केवल इंटोंके समुदायसे महल नहीं बनता उसी प्रकार रागादि परिणामके बिना केवल मन वचन कायके व्यापारसे बन्ध नहीं होता। अतः प्रयत्न कर इन रागांदि विकारोंके जालसे बचना चाहिये। शरीरादिसे भिन्न ज्ञाता दृष्टा लक्षणवाला स्वतन्त्र द्रव्य हूँ। मेरी जीवनमे जो स्पृहा है वही बन्धका कारण है। अनादिकालसे जीव और पुद्गलका सम्बन्ध हो रहा है इससे दोनों ही अपने अपने स्वरूपसे च्युत हो अन्य अवस्थाको धारण कर रहे हैं। हेयोपादेय तत्त्वोंका यथार्थ ज्ञान आगमके अभ्याससे होता है 'परन्तु हम लोग उस ओरसे विमुख हो रहे हैं। श्री कुन्दकुन्द स्वामीने तो यहाँतक लिखा है कि आगमचक्खू साहू इंदियचक्खू सव्वभूदाणि । देवा हि अोहिचक्खू सिद्धा पुण सव्वदो चक्खू ॥ , अर्थात् साधुका चक्षु आगम है, संसारके समस्त प्राणियोंका चक्षु इन्द्रिय है, देवोंका चक्षु अवधिज्ञान है और सिद्ध परमेष्ठीका चक्षु सर्वदर्शी केवलज्ञान है। इसलिए अवसर पाया है तो अहनिश आगमका अभ्यास करो। - हमारे प्रवचनके वाद महाराजने भी जीवकी वर्तमान दशाका वर्णन किया और यह बताया कि देखो अनन्त ज्ञानका धनी जीव
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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