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फिरोजाबादमें विविध समारोह
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आपत्तिका मूल है, क्योंकि इस ज्ञानके साथमे जव मोहका सम्बन्ध रहता है तब यह जीव उन प्रतिभासित पदार्थों को अपनाने का प्रयास करने लगता है । यही कारण अनन्त संसारका होता है ।
प्रत्येक मनुष्य यह मानता है कि पर पदार्थका एक अंश भी ज्ञानमें नहीं आता फिर न जाने क्यों उसे अपनाता है ? यही महती अज्ञानता है अतः जहाँ तक संभव हो आत्मद्रव्यको आत्मद्रव्य ही रहने दो। उसे अन्य रूप करनेका जो प्रयास है। वही अनन्त संसारका कारण है | ऐसा कौन बुद्धिमान होगा ? जो पर द्रव्यको आत्मीय द्रव्य कहेगा । ऐसा सिद्धान्त है कि जो जिसका भाव होता है वह उसका स्वधन है । जिसका जो स्त्र है वह उसका स्वामी है अतः यह निष्कर्ष निकला कि जब अन्य द्रव्य अन्यका स्व नहीं तव अन्य द्रव्य अन्यका स्वामी कैसे हो सकता है ? यही कारण है कि ज्ञानी जीव परको नहीं ग्रहण करता । मैं भी ज्ञानी हॅू अतः मैं भी परको ग्रहण नहीं करूंगा । यदि मैं पर द्रव्यको ग्रहण करू तो यह अजीब मेरा स्व हो जावे और मैं जीवका स्वामी हो जाऊंगा । अजीवका स्वामी जीव ही होगा अतः हमे बलात्कार अजीव होना पड़ेगा परन्तु ऐसा नहीं, मैं तो ज्ञाता द्रष्टा हॅू अतः पर द्रव्यको ग्रहण नहीं करूंगा । जब पर द्रव्य मेरा नहीं तब वह छिद जावे, भिद जावे, कोई ले जावे अथवा जिस किस अवस्थाको प्राप्त हो, पर मैं उसे ग्रहण नहीं करूंगा । यही कारण है कि सम्यग्ज्ञानी, धर्म अधर्मं अशन पान आदिको नहीं चाहता । ज्ञानमय ज्ञायक भावके सद्भावसे वह धर्मका केवल ज्ञाता दृष्टा रहता है । जव ज्ञानी जीवके धर्मका ही परिग्रह नहीं तब अधर्म का परिग्रह तो सर्वथा असंभव है । इसी तरहसे न अशनका परिग्रह है और न पानका परिग्रह है क्योंकि इच्छा परिग्रह है ज्ञानी जीवके इच्छाका परिग्रह नहीं । इनको आदि देकर जितने प्रकारके पर